मैं क्या बताऊँ तुमको उजालों के रास्ते, इस खोज मेंमैं खुद ही अंधेरों का हो गया.
मनुष्य का अहंकार ही उसकी समस्त समस्याओं का मूल है और यह मनुष्य को ईश्वर से दूर कर देता है ईश्वर से दूर जाने का मतलब जीवन के लक्ष्य से दूर हो जाना है।
जिसके सामने जिज्ञासा प्रकट करें उसके प्रति श्रद्धा होनी चाहिए तभी शास्त्र फूटता है,सतगुरु प्रसन्न और शिष्य शरणागत होना चाहिए तभी शास्त्र फूट पड़ता है।
मनुष्य संसार में केवल प्रसन्न होने नहीं आया है वह श्रेष्ठता,उदारता और ईमानदारी प्राप्त करने आया है,वह उन क्षुद्रताओं को पार करने आया है जिसमे अधिकांश लोग घिसट रहे हैं।
हाथ पांव सीधे करके खड़े हो जाना अनुशासन नहीं है मन और वाणी को संयमित करना व संयमपूर्वक नियम का पालन ही वास्तविक अनुशासन है।
किसी को भी कोई दुःख न पहुँचाने का प्रण ही जीवन को उत्कृष्टता की ओर ले जाने के मार्ग मेँ सबसे महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होता है।
प्रत्येक व्यवहार जब परमार्थ के लिए होता है शुभ् होता है और जो व्यवहार परमार्थ को भूल कर स्वार्थवश किया जाता है उससे सदैव अमङ्गल ही होता है।
मैं के सच को धारण करके ही मैं से मुक्त हुआ जा सकता है और परमात्मा की अनुभूति की जा सकती है उस पावन परमात्मा की अनुभूति के बाद व्यक्ति के समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं।
जैसे ओले खेती का नाश करके स्वयं भी गल जाते हैं उसी प्रकार दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति दूसरों का काम विगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं।
हमारी स्वयं के कर्मों के प्रति सजगता हमें जीवन में सदा ऊर्जावान बनाये रखती है जिससे हमें सच्चे सुख की अनुभूति होती है।
प्रतिशोध करने से सदैव कटु परिणाम ही प्राप्त होते हैं,इसीलिए क्षमा सहज और सरल जीवन शैली का मूलमंत्र है।
दुराचार से दूर रहने,सदाचार को अपनाने तथा भगवान के अतिरिक्त किसी अन्य पर भरोसा न करने पावन दृढ प्रतिज्ञा ही सच्ची भगवत भक्ति है।
कहीं भी,किसी को,कभी भी यदि किसी भी ढंग से बुद्धि,कीर्ति,सद्गति,भलाई और विभूति प्राप्त होती है तो उसका एक मात्र कारण सत्संग ही है।
प्रत्येक सफलता समर्पण मांगती है यदि हम चाहकर भी कुछ प्राप्त करने में असमर्थ हैं तो इसका प्रमुख कारण हमारा कर्म में पूर्ण रूप से समर्पित न होना है।
जो पंक्ति का आखिरी व्यक्ति होता है उसकी नज़र आगे के सभी लोगो पर होती है लेकिन सबसे आगे वाला व्यक्ति अपने से पीछे वाले को भी नहीं देखता ।
परमेश्वर ने प्रकृति को सभी प्राणियों के पोषण का महान दायित्व सौंपा है जो सतत् अपने विधान से मातृवत सभी प्राणियों का रक्षण,भक्षण और पोषण करती रहती है।
इस संसार में जब हम अपने मूल अस्तित्व से अर्थात परमात्मा से दूर होजाते हैं तब हमारा मन उसे याद करने लगता है और हम पुनः उसे पाने का स्वाभाविक प्रयास करने लगते हैं।
मन की मलिनता विचारों को मलिन कर देती है और मलिन विचार ही हमें पथभृष्ट कर डालते हैं ।
मन को उद्विग्न करने वाले भीषण दुरावेगों से अधिक भयंकर और कोई वस्तु नहीं है। जब यह मनोवेग जागृत हो जाते हैं तो हमारी दशा मतवालों की सी हो जाती है, हमारे पैर लड़खड़ाने लगते हैं और ऐसा जान पड़ता है कि अब औंधे मुंह गिरे ! कभी कभी इन मनोवेगों के वशीभूत होकर हम घातक सुखभोग में मग्न हो जाते हैं। लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि आत्मवेदना और इन्द्रियों की अशांति हमें नैराश्यनद में डुबा देती हैं, जो सुख भोग से कहीं सर्वनाशक है।
जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी पतिव्रता है और जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।
भोजन के लिए अच्छे पदार्थ और उन्हें पचाने की शक्ति,सुंदर स्त्री का साथ और कामशक्ति,प्रचुर धन के साथ दान देने की इच्छा ये सुख मनुष्य को बहुत भाग्य से प्राप्त होते हैं।
जो अपनी स्वयं की बुराई को समय रहते पहचानकर तुरंत उसे समाप्त करने का प्रयाश्चित कर लेते हैं वे निश्चित ही समस्त बुराइयों से दूर हो जाते हैं।
जो लोग माता,पिता और गुरु की शिक्षा और आज्ञा को सर्वोपरि मान कर उसे शिरोधार्य करते हैं वे ही संसार में जन्म लेने का पूर्ण लाभ प्राप्त करते हैं वरना तो जन्म ही व्यर्थ है।
बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है इसीलिए मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए।
संघर्ष जितना कठिन होता है,सफलता भी उतनी ही बड़ी मिलती है,यदिआप समस्याओं का समाना नहीं कर रहे हैं,तो निश्चित आप गलत रास्ते पर चल रहे हैं.
जो व्यक्ति सदाचार का उल्लंघन करके मनमाना बर्ताव करता है उस हठधर्मी पुरुष का कल्याण यज्ञ,दान और तपस्या से भी नहीं होता।
सम्राट हो या भिखारी इस जगत में किसी को भी आज तक सुख और शांति न मिली है और न ही मिल सकती है,एक न एक अभाव,दुःख आजीवन बना रहता है ।
राज्य का मद सबसे कठिन मद है,जिन्होंने साधु सभा का सतसंग नहीं किया वे राजा राजमद की मदिरापान करते ही मतवाले हो जाते हैं ।
चौदह भुवनों का स्वामी भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता नष्ट हो जाता है,जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर होकर भी यदि थोड़ा सा भी लोभी हो जाता है तो उसे भी कोई भला नहीं कहता।
देवत्व की प्राप्ति हेतु जीव का मनुष्य के रूप में जन्म अन्तिम पड़ाव है लेकिन जीव मनुष्य होकर भी मनुष्यता से विमुख होकर अपना यह अंतिम सुअवसर नष्ट कर देता है।
व्यक्ति के आचरण और आचार को मात्र धर्म ही प्रभु श्रीराम की कृपा से सुधार सकता है यदि ये दोनों सुधर गए तो कुछ भी सुधरने को शेष नही रहेगा ।
दया प्राणियों का एक प्राकृतिक गुण है जो सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान है जो परमात्मा की ही कृपा से हृदय में जाग्रत होकर प्राणी को देवत्व प्रदान करती है।
भगवान का पावन नाम स्मरण केवल मनुष्य के द्वारा किये पापों को ही नष्ट नहीं करता बल्कि मन में भक्ति,क्षमा और दया आदि गुणों को उत्पन्न भी करता है।
मनुष्य स्वयं में नहीं जीते वे दूसरों की तरह बन जाना चाहते हैं यही चाह उन्हें स्वयं से भी दूर कर देती है और वे जो उनका अपना है उससे भी हाथ धो बैठते हैं।
कुछ भी बनने की चेष्टा मनुष्य को स्वयं से दूर ले जाती है,स्वयं कुछ बनना नहीं बल्कि स्वयं को जो भी है उसे जानना है कुछ बनने में बनावट है और जानने में स्वाभाविकता है।
ब्रह्मस्वभाव सर्वत्र सम है,जहाँ निर्गुण और निर्मल ब्रह्म स्थित है वहीं द्विज है।ये जो निर्मल,विमल स्वाभव वाले प्राणी हैं वे साक्षात ब्रह्म के स्थान और भाव का दर्शन कराने वाले हैं।
अयोग्यता स्वयं से श्रेष्ठ को सदैव नकारती है,जबकि योग्यता सदैव श्रेष्ठता का सम्मान,स्वागत एवम आलिंगन करती है।
जो स्वयं ज्ञानी बनता है वह निपट अज्ञानी है ।हमारा लक्ष्य ज्ञानी बनना नहीं निजी ज्ञान को जानना है जिसको जानने के बाद कुछ भी बनने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
प्राणायाम हमारे मन को मात्र निर्मल एवं शक्तिशाली ही नहीं बनाता अपितु वह उसे अनुशासित,नियंत्रित एवं नियमित भी कर देता है जो सर्वाङ्गीण विकास का कारण है।
किसी किसी का कद इतना बड़ा हो जाता है कि उसका मुंह न तो नीचे वाले देख पाते हैं और न ही नीचे वालों का वह इस बड़प्पन से क्या लाभ।
प्रकृति से सीख लेते हुए मनुष्य को प्राणिहित में अपना सर्वश्व समर्पित कर देना चाहिए।परहित से बढ़कर कोई धर्म नहीं, परसेवा ही सच्ची भगवत भक्ति है और दूसरों को कष्ट देने के जैसा अन्य कोई भी पाप कर्म नहीं है।
भला भलाई ही ग्रहण करता है और दुष्ट दुष्टता को ग्रहण किये रहता है भले व्यक्ति का विछुड़ना मरण के समान दुखदायी होता है और दुष्ट का मिलना भी प्राणों को संकट में डाल देता है।
नैतिक जीवन में मनुष्य कर्तव्यकर्म के द्वारा अपने मन के तमाम मैलों को धोने का प्रयत्न करता है,परन्तु एक समय ऐसा आता है जब मनुष्य ऐसा करते करते थक जाता है तब उसके मन से अनायास ही यह शब्द निकलते हैं कि भगवन मेरे उद्योगों की हद आ गयी मुझे बल प्रदान करो।
ईश्वर के प्रति हमारी सच्ची आस्था हमें हर क्षण मात्र आत्मबल ही प्रदान नहीं करती है बल्कि हमें निरन्तर बुराइयों से भी दूर रखती है कुप्रवृत्तियों से बचने का इससे आसान अन्य कोई उपाय ब्रह्मांड में है ही नहीं।
जिस प्रकार अग्नि पास जाने से हमारे हाथ पैर और कपड़े गर्म हो जाते हैं,और बर्फ के पास जाने से ठंढ की अनुभूति होती है और सुगन्ध के जाते ही सम्पूर्ण मनन्तर सुवासित हो जाता है उसी प्रकार जैसे ही हम ईश्वर केनिकट आते हैं स्वभाविक रूप से ईश्वरीय गुण हमारे अन्दर आने लगते हैं।
रिश्तों को बड़ी जतन से सम्भालना पड़ता है, रिश्ते कुर्बानी मांगते हैं, रिश्ते ईमानदारी मांगते हैं।जो लोग अपनी गलती ईमानदारी से स्वीकार करने की हिम्मत करते हैं, उन लोगों के रिश्ते अच्छे और दूरगामी होते हैं।अहंकार की रिश्तों के बीच कोई जगह नहीं होती।
आस्था से भक्ति का जन्म होता है और भक्ति से अहंकार का नाश होता है और अहंकार के नष्ट होते ही मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है ।
हम वही देखते,सुनते,कहते व करते हैं जो परम सत्य स्वरूप परमात्मा चाहता है अन्यथा कुछ भी नहीं,सभी प्राणी उसी परम सत्य परमेश्वर की कार्य योजना के निमित्तमात्र हैं।
संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चन्दन का आचरण, कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है क्योंकि उसका स्वभाव काटना है किंतु चन्दन अपने स्वभाववश अपना गुण कुल्हाड़ी को देकर उसे सुवासित कर देता है,इसी गुण के कारण चन्दन देवताओं के सिर पर चढ़ता है और कुल्हाड़ी के मुख को पुनः आग में तपा कर उसे घन से पीटा जाता है।
आज की जटिल जीवन शैली में आरोग्यता एक वरदान की तरह है जो व्यक्ति को लाखों पुण्यों से प्राप्त होती है इसे अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु परिश्रम ही सबसे सरल उपाय है अपने दैनिक छोटे छोटे कार्यों को औरों के सहारे न छोड़कर स्वयं ही निपटा कर आजीवन शरीर को स्वस्थ,निरोगी एवं फुर्तीला बनाये रखा जा सकता है।
अभीष्ट की प्राप्ति हेतु कर्मशीलता,लगन और धैर्य की आवश्यकता होती है ये तीन शब्द सफलता के पर्यायवाची हैं ।जिंदगी में हमें बने बनाए रास्ते नहीं मिलते हैं, जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए हमें खुद अपने रास्ते बनाने पड़ते हैं.
बिना परिश्रम के प्राप्त फल अकर्मण्यता का पोषक होता है जो कि हमें शरीरिक और मानसिक दोनों तरह से कमज़ोर बनाने लगता है और हम प्रत्येक कदम पर औरों को याचक की दृष्टि से देखने को आदतन मजबूर हो जाते हैं।