सोमवार, 2 नवंबर 2015

मन अमृत

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेंद्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।
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जिसने अपने को योगमय कर लिया है,जिसने आत्मशुद्धि कर ली है,जिसने आत्मनियंत्रण करके इन्द्रियों पर भी काबू पा लिया है,जिसने स्वयं को सबके साथ तन्मय कर लिया है,वह कर्म करते हुए भी उससे लिप्त नहीं होता है। 

स्वयं के कर्तव्यों को समय पर पहचान कर उनको पूर्णता प्रदान करना ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व का प्रथम गुण है।

धन्या सा जननी लोके धन्यो सौ जनकः पुनः।
धन्यः स च पतिः श्रीमान् एषां गेहे पतिव्रता।।
पितृवंश्या मातृवंश्याः पतिवंश्यास्त्रयस्रयः।
पतिव्रतायाः पुण्येन स्वर्गसौख्यानि भुञ्जते।।
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संसार में वह माता धन्य है,वह पिता धन्य है तथा वह भाग्यवान् पति धन्य है जिसके घर में पतिव्रता स्त्री विराजती है।स्त्री के पुण्य से उसके पिता,माता,पति इन तीनों के कुलों की तीन-तीन पीढ़ियां स्वर्ग सुख की प्राप्ति करती हैं पतिव्रता का चरण जहाँ जहाँ धरती पर स्पर्श करता है वह स्थान तीर्थ भूमि की भांति पावन,पवित्र और भाररहित हो जाता है।


वेशेन वपुषा वाचा विद्यया विनयेन च।
वकारैः पञ्चभिः युक्तः नरः भवति पूजितः॥
वेश (पहनावा), शरीर, वाणी, विद्या और विनय इन पाँच वकारों से युक्त पुरुष पूजित (सम्मानित) होता है।



अन्नेन धार्यते देह:, कुलं शीलेन धार्यते |
प्राणा मित्रेण धार्यन्ते, क्रोध: सत्येन धार्यते ||

शरीर को बनाये रखने के लिए अन्न की आवश्यकता होती है, खानदान की शोभा उत्तम आचरण से होती है, संकट के समय मित्र ही प्राणों के रक्षक बनते हैं और सच्चाई के सामने क्रोध शांत हो जाता है



ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा।
जघन्य गुण प्रवृत्तिस्था अधो गच्छति तामसा।।

सत्त्वगुण में स्थित पुरुष उच्च (लोकों को) जाते हैं राजस पुरुष मध्य (मनुष्य लोक) में रहते हैं और तमोगुण की अत्यन्त हीन प्रवृत्तियों में स्थित तामस लोग अधोगति को प्राप्त होते हैं।।
श्रीमद्भगवद्गीता 14


तत्त्वं चिन्तय सततंचित्तेपरिहर चिन्तां नश्र्वरचित्ते ।
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णतरणे नौका ॥
अर्थात :- सतत चित्त में तत्व का विचार कर, नश्वर चित्तकी चिंता छोड दे । एक क्षण सज्जन संगति कर, भव को तैरनेमें वह नौका बनेगी ।


प्राणी को हमेशा सत्य से ही प्यार करना चाहिए ,सत्य की शक्ति से ही वह हर स्थान पर विजय प्राप्त कर सकता है|


जीवन में कर्म और परिश्रम से ही फल मिलता है,जो हर समय अपने घर के ही ख्यालों में ही खोया रहता है उसे विद्या नहीं आ सकती|


सज्जन तिल बराबर उपकार को भी पर्वत के समान बड़ा मानकर चलता है।

दुर्जन पुरुष सज्जनता को कायरता मानते हैं और परिश्रम से कतराते है जो उनके पतन का मूल कारण होता है लेकिन सज्जन पुरुष निश्छल परिश्रम में जीते हैं जो अपने परिश्रम के बल पर एक दिन महापुरुष बन जाते हैं।

इंसानों के लबादे में जानवर होता जा रहा है समाज।
इन्सानो के लबादे में जानवर या जानवरों के लबादे में इंसान।

धनी वही व्यक्ति है जो दानी है जो देने में असमर्थ है वह सर्वथा दरिद्र है ऐसा सर्वथा दरिद्र जिसके पास सभी वस्तुओं का अभाव है वह वह वाणी और परिश्रम से दान करने का उपक्रम कर सकता है।


सनातन ही सत्य, सर्वोच्च,शान्ति और सर्वोत्तम है इसीलिए सबको सहज स्वीकार है।


अपने दुश्मनों पर विजय पाने वाले की तुलना में मैं उसे शूरवीर मानता हूं जिसने अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली है; क्योंकि सबसे कठिन विजय अपने आप पर विजय होती है।
अरस्तू



जो मनुष्य अपने क्रोध को अपने ही ऊपर झेल लेता है, वह दूसरों के क्रोध से बच जाता है।
सुकरात


जैसा शरीर होता है वैसा ही ज्ञान होता है। जैसी बुद्धि होती है, वैसा ही वैभव होता है।

परिश्रम करने से इंसान की गरीबी दूर हो जाती है और पूजा करने से पाप दूर हो जाते हैं|


अधर्म दुःख रूप है और धर्म सुखरूप है व्यक्ति धर्म और सदाचार से सुख एवं अभ्युदय का भागी होता है और अधर्म और दुराचार से उसे अपार दुःख भोग करना पड़ता है।


दान के विना प्राप्ति व्यर्थ है।

मानवता जब अपना परमार्थ कर्तव्य भूलकर भोग-वासना की ओर चली जाती है तब वह पशुता बन जाती है और यही पशुता मनुष्यता के विनाश का मूल है।


जो मनुष्य दयाहीन है,संवेदनशील नहीं है,करूणा हीन है और जिसके लिये स्वार्थ सिद्धि ही प्रमुख लक्ष्य है वह मनुष्य की योनि में साक्षात पशु है।


दूसरों के द्वारा जलाये गए दीयों का यात्रा में कोई मूल्य नहीं स्वयं के द्वारा प्रज्ज्वलित दिया सदैव अँधेरे में काम आता है।

यदि चाहते हो कि लोग तुम्हें प्यार करें,सम्मान दें और सहयोग करें तो फलदार वृक्ष की तरह झुकते जाओ,इतने विनम्र बन जाओ कि हर कोई तुम्हें पा सके कोई भी तुमसे दूर न हो।

जिसके मन में सदा विषयों की ही कामना रहती है,जो सर्वथा शरीर को आराम देने और सुख पहुँचाने में लिप्त है तथा जो अपने अभिमान के कारण सबसे ऐंठा रहता है ऐसे दीन और निर्बुद्धि मानव का कल्याण मात्र भगवान ही कर सकते हैं।

हममें अंदर और बाहर का संतुलन होना जरुरी है हमारा स्वाभाव वृक्ष की तरह होना चाहिए  ऊंचाई के साथ विनम्रता, सहजता,शुचिता और शांति भी उसी अनुपात में बढ़नी चाहिए।

जब हमारे कार्य,स्वाभाव और गुण औरों के लिए सदैव सुखदाई होंगे तभी हमारी प्रतिष्ठा,प्रसिद्धि व कीर्ति कायम रह सकती है।

आज का मनुष्य समृद्ध हो रहा है,किंतु अंदर से खाली हो रहा है।

मांगने की वस्तु तो केवल प्रसन्नता है जिसने प्रसन्नता मांग ली उसने सब कुछ मांग लिया,जिसने प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त कर ली उसने सर्वस्व प्राप्त कर लिया।

जो दर्द को महसूस करते हैं उसे समझते हैं और उसे स्वीकार करते हुए सतत् आगे बढ़ते हैं वे प्रसन्नता की मंजिल पर अवश्य ही पहुँचते हैं।

चन्द जरूरतों और स्वार्थ के पिंजरे में स्वयं को कैद रख कर हम रोज अनेकों महत्वपूर्ण खुशियों से हाथ धो बैठते हैं।

हमारे जीवन में कई सच ऐसे होते हैं जिन्हें दूसरों के सामने प्रकट करने से हम डरते रहते हैं ये हमें स्वयं भी स्वीकार नहीं होते ये भीतर ही भीतर हमें खोखला बनाते रहते हैं,और डराते रहते है हम मात्र आलोचना के भय से दोहरी जिंदगी जीते रहते हैं ।

असत्य हमें सदैव डराता है और कमजोर बनाता है जबकि सत्य सदैव निर्भय एवं शक्तिशाली बनाता है।

झूठ चाहे छोटा हो या बड़ा उससे पूर्ण मुक्ति ही हमें सुख और शांति प्रदान कर सकती है।

जो विपरीत परिस्थिथितियों में भी बिना विचलित हुए केवल लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हैं उन्हें सफलता अवश्य मिलती है।

लोभ हमारे विवेक को नष्ट कर देता है लोभ में पड़ कर हम ऐसे गलत कदम उठा लेते हैं जो हमारे स्वयं के लिए भी हानिकारक सिद्ध होते हैं।

जब तक आप स्वयं को नहीं जान जाते तब तक आप वह प्रत्येक वस्तु जो आपसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ी है के बारे में कदापि नहीं जान सकते।

जब हमें ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो भीतर की जिज्ञासा रूपी हलचल समाप्त हो जाती है,इन्द्रियां स्थिर हो जाती हैं,जुगुप्सा मिट जाती है और हमें परम शांति की अनुभूति होती है।

कोमल शब्दों से कठोर दिलों को भी जीता जा सकता है जबकि कठोर शब्द दूसरों की भावनाओं को आहत कर देते हैं जिससे मधुर से मधुर सम्बन्ध भी कटु हो जाते हैं।

जिसके भीतर कोई घाव नहीं है उसको कोई भी चोट नहीं पहुंचा सकता चोट किसी की बुराई से नहीं खुद के भीतरी घाव से ही पहुँचती है।

जो इंसान अपने कर्म को नहीं पहचानते वे आँखे होते हुए भी अंधे हैं स्वकर्म की सही पहचान ही हमें सही लक्ष्य की ओर उन्मुख करती है।

जिसके अंदर जानने और मानने की अगाध इच्छा होती है वही श्रद्धालु है और ज्ञानी भी बिना श्रद्धा के ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।

यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि जीवन असुरक्षा का दूसरा नाम है सुरक्षित तो केवल मृत्यु है फिर भी हममें से कोई मृत्यु नहीं चाहता सभी सुरक्षा कीआशा में जीवन ही चाहते हैं ।

प्रकृति ही सभी प्राणियों की जीवनदायिनी व पालनकर्ता माँ है ऐसा प्रत्येक कार्य जिससे माँ को कष्ट पहुँचता है तो वह निश्चित ही सभी बच्चों के लिये भी कष्टकारी होगा।

ध्येय को लक्ष्य में रखकर जो प्रार्थना शांत मन एवं निःस्वार्थ भाव से की जाती है उसमें अमोघ शक्ति होती है और ऐसी प्रार्थना का चमत्कार प्रार्थी के अनुभव में शीघ्र आ जाता है ।

जीव परमात्मा का ही अंशरूप है जब तक यह अपने मूल रूप में पूर्णतया समाहित नहीं हो जाता तब तक इसे शांति नहीं प्राप्त हो सकती यह जन्म जन्मांतर तक भटकता ही रहता है।

मनुष्य की सर्वोच्च शक्तियों का परमात्मशक्ति के साथ तादात्म्य ही मानव जीवन के उत्कर्ष की चरम सीमा है,इस ध्येय पर पहुँचने हेतु जो क्रियाशील प्रवृति है वह हमारी प्रार्थना है।

नैतिकता,सत्यता और सच्चरित्रता हमारे जीवन को उच्चता और धवलता की ओर ले जाती है।

मानवता मानव जीवन की अमूल्य निधि है जिसे मानव आज भौतिक विकास की चकाचौध में स्वयं को ही धोखा देता हुआ अपने मूल प्राकृतिक स्वभाव का स्वयं ही विनाश कर रहा है।

केवल स्वयं के ही सुख की लालसा में लोग नित नये-नये पापों का आयोजन कर उसे प्रगति समझ मदान्ध हो रहे हैं और निरन्तर इसे करते जा रहे हैं जैसे मानो उनके अलावा और किसी का कोई अस्तित्व ही नहीं ।

जो नेक काम करता है और नाम की इच्छा नहीं करता उसके चित्त की शुद्धि होती जाती है। उसका काम सहज ही परमशक्ति को अर्पण हो जाता है।

जो भीतर से नियम का पालन करे जिसका मन सरल बन जाये विकारमुक्त हो जाये जो काम,क्रोध और अहंकार से प्रभावित न हो उसे ही अनुशासित कहते हैं।

प्रार्थना ही मङ्गल का मूल है,सच्ची प्रार्थना होते ही सारे संकट टल जाते हैं।जिसने भी सच्चे मन से प्रार्थना की उसे उसकी अभीष्ट की अवश्य ही प्राप्ति हो गयी।

जो ईश्वर का नाम लेकर अपना प्रत्येक उद्योग प्रारम्भ करते हैं तथा ईश्वर नाम लेकर ही समाप्त करते हैं उनका वह कार्य निश्चित ही शुभ फल प्रदान करता है।

जिस किसी विचार या कार्य के परिणाम में दूसरों का अहित होता हो वह पाप है तथा जिस कार्य या विचार के परिणाम में दूसरों का हित होता हो वह पुण्य हैं।

शरीर एक नौका की तरह है जिसको नदी पार करने के उपरांत छोड़ना ही पड़ता है कोई भी नदी पार करने के बाद नाव को साथ नहीं ले जाना चाहेगा हम मात्र एक यात्री हैं और हमारा लक्ष्य कुछ और ही है।

सत्य को सान्त्वनायें ढक देती है जीवन में हमें सभी मित्र सम्बन्धी आदि सान्त्वना ही देते हैं जिससे हम निरंतर सत्य से दूर होते चले जाते हैं और मात्र सांत्वनाओं का बोझ ही शेष रह जाता है।

अगर मृत्यु पर मानव का वश चले तो उससे यही कहे कि जरा रुको अभी मैंने किया ही क्या है थोड़ा धन इकट्ठा कर लूँ थोड़ा मन इकठ्ठा कर लूँ,थोड़ा ऐसा कर लूँ थोड़ा वैसा कर लूँ  एक संस्मरण और जोड़ दूँ मैंने तुम्हें सदा अपना जाना और अपने से भी ज्यादा माना परन्तु तुमने क्या मुझे नहीं पहचाना।

जब सुख ज्यादा दिन नहीं टिक पाता तो दुःख भी कैसे टिकेगा?हम यह बात भली भांति जानते हुए भी दुःख आते ही बेचैन हो जाते हैं और नाराज हो किस्मत को कोसने लगते हैं।

हमारी सीमित सोच होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को नकार देती है हमारे विचार अंदर बंद पड़े रहते हैं वे दिनोदिन पुराने और अनुपयोगी होते जाते हैं फलतः हम जमाने में अप्रसांगिक हो जाते हैं ।

मन के बासी हो रहे विचारों को नई धूप एवं ऊर्जा प्रदान करने के लिए मन की खिड़कियां हमेशा तो नहीं परन्तु समय समय पर खोलते अवश्य रहें क्योकि बदलाव प्रकृति का मूल नियम है ।

जितनी आपको दुःख सहने की क्षमता होगी उतने ही आपके पास आएंगे,सुख और दुःख दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं यदि आप दुःख से दूर भागेंगे तो सुख स्वतः ही आपसे दूर हो जायेंगे।

लोक जितना बड़ा है अलोक भी उतना ही व्यापक है जो दिख रहा है उसे समझने के लिए जो नहीं दिख रहा है उसे भी स्वीकार करना होता है।

रेत पर बने नक़्शे इस बात के प्रमाण हैं कि उस पर होकर अब तक क्या-क्या बह चुका है सभी के   सफर की पूरी कहानियां उसमें समाहित हैं।

मात्र निर्मलता का लबादा ओढ़कर मलीन व्यक्ति अपनी कुटिलता से आज समाज में श्रद्धेय बनते जा रहे हैं जो समाज को उचित मार्गदर्शन देने के बजाय उसे और भी भटका देते हैं।

आज मन की मलिनता को दूर करने का एक मात्र उपाय स्वाध्याय ही है क्योंकि तत्वदर्शी महामानवों का आज के आधुनिक समाज में टोटा  है जो आमजन के मन को अपनी सुसंगति से निर्मल बना देते थे।

जहाँ मैं और मेरा शुरू हो जाता है वहां यह डर आ घेरता है कि कोई और मालिक न हो जाये इसके बाद ईर्ष्या और भय शुरू हो जाते हैं घबराहट और चिंता शुरू हो जाती है,पहरेदारी शुरू हो जाती है और ये सब मिलकर प्रेम को नष्ट कर देते हैं।

यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसे जाने दें क्योंकि वह लौटता है तो आपका है यदि नहीं आता तो आपका था ही नहीं।

आपका अहंकार आपको औरों को स्वीकार करने ही नहीं देता जब तक आप किसी को हृदय से स्वीकार नहीं करते तबतक उससे आप प्रेम नहीं कर सकते,अहंकार आपसी प्रेम की राह में सबसे बड़ी बाधा है।

सामाजिक परिस्थितियों का असर मानव मन पर भी पड़ता है यदि परिस्थितियां बुरी होती हैं तो मन भी बुरा हो जाता है यदि अच्छी है तो निःसंदेह मन भी अच्छा हो जाता है ।

अर्थ और अधिकार की अदम्य लालसा से उन्मत्त मनुष्य सफलता की प्राप्ति हेतु किसी भी पाप से बचना नहीं चाहता और यही पापाचरण उसके पतन का प्रमुख कारण है।

यदि जीवन में सबकुछ आपकी इच्छा के अनुरूप होता चला जाये तो इसको आप भगवान् की कृपा मानिये यदि कुछ भी आपकी इच्छा के विपरीत हो तो उसे आप भगवान् की इच्छा समझिये।

यदि आपकी हथेली खुली है तो वह सबकुछ आपको प्राप्त हो सकता है जिसकी आप आशा करते हैं यदि हथेली बंद होती है तो परिणाम इसके विपरीत आते हैं।

मानवता जब अपना परमार्थ कर्तव्य भूलकर भोग-वासना की ओर चली जाती है तब वह पशुता बन जाती है और यही पशुता परिपक्व होकर दानवता का भयंकर रूप धारण कर लेती है।

जब प्रलय का समय आता है तो समुद्र भी अपनी मर्यादा छोड़कर किनारों को छोड़ अथवा तोड़ जाते है, लेकिन सज्जन पुरुष प्रलय के समान भयंकर आपत्ति एवं विपत्ति में भी अपनी मर्यादा नहीं बदलते।
स्वामी विवेकानंद

आत्मानंद की स्थिति स्वयं ही इतनी पूर्ण,सुखद एवं शान्तिमय है कि फिर कोई अभाव,अभिलाषा और द्वन्द्व शेष नहीं रहता है।

जो व्यक्ति प्रत्येक क्षण परमात्मा की शक्ति पर विश्वास बनाये रखते हैं,वे कभी परेशान हैरान नहीं रहते बल्कि ऐसे व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों को भी अपने पक्ष में करने की क्षमता रखते हैं, परमात्मा की शक्ति असीम होती है और इसके बल पर मनुष्य कुछ भी प्राप्त कर सकता है।

जो अभिमानी है वह संसार में सबसे बड़ा अनाथ है क्योंकि उसका कोई नाथ नहीं होता वह न तो किसी की बात मानता है न ही किसी को कुछ समझता है केवल अपनी ही रटता रहता है इसीलिए आज लगातार अनाथ बढ़ते जा रहे हैं।

कर्तव्य ही अधिकारों के जनक हैं बिना कर्तव्यों के चिन्तन के जो भी अधिकारों का चिंतन करते हैं वे महामूर्ख हैं ।

जो लोग धरती से जुड़े होने बाद भी आकाश की ऊंचाइयों को छू लेते हैं वे निःसंदेह स्थिर ,अचल एवं शान्त होते हैं और उन्हें पर्वत कहा जाता है ।

जहां सभी दंभरहित हों,धर्मपरायण और पुण्यात्मा हों,पुरुष और स्त्री सभी गुणीं हों, सभी गुणों का आदर करने वाले हों, विद्वान हों, ज्ञानी हों और दूसरों के द्वारा किये गए उपकार को मानने वाले हों,कपट और धूर्तता किसी में भी न हो इन गुणों से परिपूर्ण समाज अवश्य ही राम राज्य है।

संसार एक सागर की तरह है और हमें एक नौका की तरह इस सागर के पार उतरना है बिना कुछ भी ग्रहण किये अगर हम ग्रहण करने लग जाएंगे तो डूबना निश्चित है जो जितना अधिक और जल्दी संसार से ग्रहण करेगा उतनी ही जल्दी डूबेगा ।

जो प्राणियों को बारम्बार दुःख देते हैं और ऐसा करने पर उनको गर्व की अनुभूति होती है,आत्मसुख मिलता है, वे मनुष्ययोनि में साक्षात पिशाच हैं।

प्रेम  विस्तार  है , स्वार्थ  संकुचन  है।  इसलिए  प्रेम  जीवन  का  सिद्धांत  है। वह जो  प्रेम  करता  है  जीता  है , वह  जो  स्वार्थी  है  मर  रहा  है।    इसलिए  प्रेम  के  लिए  प्रेम करो , क्योंकि  जीने  का  यही  एक  मात्र  सिद्धांत  है , वैसे  ही  जैसे  कि  तुम  जीने  के  लिए सांस  लेते  हो।। स्वामी विवेकानंद।।

नृत्य ही अस्तिव है।अस्त्तिव के होने का ढंग ही नृत्यमय है,अणु परमाणु तक सभी नृत्य में लीन हैं उर्जा अनन्त रूपों में नृत्य कर रही है अर्थात सम्पूर्ण जीवन ही एक नृत्य है।। ओशो

अगर धन दूसरों की भलाई  करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है, अन्यथा, ये सिर्फ बुराई का एक ढेर है, और इससे जितना जल्दी छुटकारा मिल जाये उतना बेहतर है.

यदि दूसरों के दुःखों को देखकर आपका मन विचलित नहीं होता तो आप कुछ भी हो सकते हैं लेकिन मनुष्य कदापि नहीं हो सकते, असल में ईश्वर ने हमें दूसरों की भलाई करने के लिए ही तमाम तरह की शक्तियाँ व सामर्थ्य दिया है,प्रकृति के कण-कण में भी दूसरों पर उपकार करने की भावना दिखती है, सूर्य,चन्द्रमा, वायु, नदी,पेड़ पौधे आदि बिना किसी स्वार्थ के दूसरों की सेवा में लगे हैं।

यह समस्त संसार सत्य पर ही टिका है जिस दिन सत्य नहीं रहेगा यह संसार भी नहीं रहेगा सत्य ही शक्ति है, सत्य ही ऊर्जा है और सत्य ही प्रकाश है जिससे सम्पूर्ण जगत दृष्टिगोचर होता है।

अगर शिक्षा सुचरित्र का निर्माण नहीं करती है और लोगों को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत नहीं बनाती है तो वह शिक्षा व्यर्थ है

परमार्थ साधन के लिए किसी को कार्य,स्थान,वस्त्र और नाम बदलने की कोई आवश्यकता नहीं मात्र ईश्वर को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने से ही इसे सुगमतापूर्वक सिद्ध किया जा सकता
है।

ईश्वर ने मनुष्य को संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करने हेतु भेजा है उस उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मनुष्य को संसार में अपने समस्त कर्त्तव्यों का पालन सत्यता और निष्ठापूर्वक करना चाहिए।

अभिमान और अपमान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो अभिमानी हैं उन्हें निश्चित ही अपमान का भी सामना करना होगा।

आज हमारी समझ तो सही होती जा रही परन्तु जिन्दगी समझ के विपरीत ग़लत होती जा रही है कारण कि हम अपनी समझ और ज्ञान को व्यवहार में नहीं लाते उसे मस्तिष्क में ही बंद किये रहते हैं।

जिनका हृदय मद और अहंकार से उन्मत्त रहता है वे लोग स्वप्न और माया के समान मिथ्या हैं वे किसी के लिए भी कल्याणकारी सिद्ध नहीं हो सकते ।

बुरे लोगों की यह सबसे बड़ी अच्छाई है कि वे संगठित रहते हैं लेकिन भले लोगों की यह सबसे बड़ी कमी है कि वे संगठित नहीं रहते क्योंकि बुराई सदैव शक्ति की उपासक रही है और संगठन शक्ति देता है जबकि भलाई भक्ति में आस्था रखती और भक्ति के लिए शक्ति नहीं त्याग एवं निष्ठा की आवश्यकता होती है।

जब तक आप खुद पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते।यदि  स्वयं  में  विश्वास  करना  और  अधिक  विस्तार  से  पढाया  और  अभ्यास कराया   गया  होता  ,तो  मुझे  यकीन  है  कि  बुराइयों  और  दुःख  का  एक  बहुत  बड़ा हिस्सा  गायब  हो  गया होता।
स्वामी विवेकानंद

हिंसक पशुओं के साथ जंगल में और दुर्गम पहाड़ों पर विचरण करना कहीं बेहतर है परन्तु मूर्खजन के साथ स्वर्ग में रहना भी श्रेष्ठ नहीं है !

कभी मत सोचिये कि आत्मा के लिए कुछ असंभव है. ऐसा सोचना सबसे बड़ा विधर्म है.अगर कोई  पाप है, तो वो यही है; ये कहना कि तुम निर्बल  हो या अन्य निर्बल हैं।

बिना स्वयं की प्रप्ति के आप ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं पा सकते,कोई भी लक्ष्य नहीं साध सकते औरअगर स्वयं को पाना और जानना है तो दूसरों से अपना ध्यान हटाना होगा।

जीवन में बाह्य अनुशासन से ज्यादा महत्व भीतर के अनुशासन का होता है और भीतर का अनुशासन तभी आता है जब मन उठ रहे काम, क्रोध और लोभ के वेग को नियंत्रित किया जाये यह प्राणायाम से ही संभव हो सकता है।

जो औरों की नहीं सुनते हैं वे मानसिक रूप से मृत हैं।

जीवन में किये गये अच्छे कार्य आपकी स्मृति में सदैव आनन्द के रूप में बने रहते हैं कभी भी आपको चिंतित नहीं करते।

हम यह भूल गए हैं कि हम एक शांतिप्रिय जीव हैं, हमारी जीवनशैली ही हमें हिंसक बना रही है जीवन का मूल रूप प्रेम है हम स्वयं को अपने मूल से अलग कर रहे हैं।

अज्ञानी कर्म का प्रभाव ख़त्म करने के लिए लाखों जन्म लेता है जबकि आध्यात्मिक ज्ञान रखने और अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति एक क्षण में उसे ख़त्म कर देता है।
महावीर स्वामी

संतों के मिलने के समान जगत में कोई सुख नहीं है, क्योंकि मन, वचन और शरीर से परोपकार करना ही संतों का सहज स्वभाव है। महान संत आपको अच्छे विचार देते हैं, जिससे आप समाज की भलाई के लिए काम करते हैं।

कोई भी इस भ्रम में न रहे कि वह सर्वज्ञानी है या कोई हमेशा मूर्ख ही रहेगा। भगवान की जब जैसी इच्छा होती है, तब वह प्रत्येक प्राणी को वैसा बना देते हैं। इसलिए कभी किसी चीज का अहंकार नहीं करना चाहिए, जो अहंकार करते हैं। वह समाज में कभी आगे नहीं बढ़ पाते।

स्वर्णमयी लंका, लक्ष्मण मे न रोचते। 
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
भगवान राम छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं कि पूरी लंका नगरी ऊपर से नीचे तक सोने से मढ़ी हुई है, फिर भी हे लक्ष्मण, यह मुझे जरा भी अच्छी नहीं लग रही। मेरे लिए तो मां और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक मूल्यवान है। इस चौपाई से हमें यह सीख मिलती है कि जो व्यक्ति अपनी जन्मभूमि से जुड़ा रहता है, वहां के मूल्यों को आगे बढ़ाता है। वही दूसरों से आगे रहता है।

प्राकृतिक शक्तियों में देवी स्वरूप की अवधारणा मात्र यह इंगित करती है कि हम इनकी रक्षा करें, इनसे अनुराग रखें और स्वस्थ, संतुलित जीवनयापन करते हुए पर्यावरण की यथाशक्ति रक्षा करें। 

“जो आनंद प्रयत्न में है, भावना में है, वह मिलन में कहाँ ? गंगा उस मिलन से तृप्त नहीं हुई, उसने मिलन-प्रयत्न को अनंत काल तक जारी रखने का व्रत लिया हुआ है”।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

राग और ममत्व के प्रभाव के शिथिल हो जाने पर जीव में समत्व का भाव जागृत होता है । ममत्व से समत्व नहीं सधता है । ‘दोहावली ‘में गोस्वामी तुलसीदास भी कहते हैं,
“तुलसी ममता राम सों
समता सब संसार”

जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।
स्वामी विवेकानंद

मनुष्य का परमपिता परमेश्वर से प्रेम उसकी आध्यात्मिक चेतना के स्तर को दर्शाता है जो जितना अधिक ईश्वर से प्रेम करता है वह उतना ही आध्यात्मिक रूप से परिपक्व होता है।

जिन्हें स्वयं से नहीं औरों से उम्मीद होती है वे जीवन भर औरों की ओर ही देखते रहते हैं और उन्हीं की कमियां गिनाते रहते हैं इसके विपरीत जो स्वयं पर भरोसा रखते हैं वे औरों की परवाह किये बिना निरन्तर स्वयं को ही सुधारने का प्रयास करते रहते हैं औरों की कमियां देखने का उनके पास समय ही नहीं रहता वे निर्बाध रूप सेअपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

अहिंसा

मात्र स्वार्थ सिद्धि हेतु किसी चराचर जीव को मन,कर्म और वाणी से क्षति पहुँचाना हिंसा है।जगत के सभी जीवों को इस धरा पर विचरण करते हुए जीवन यापन का समान अधिकार है कोई भी किसी के इस अधिकार पर अतिक्रमण नहीं कर सकता जो ऐसा करता है वह दुष्ट और हिंसक है।संसार में सभी प्राणियों को प्राणों के समान प्रिय अन्य कोई वस्तु नहीं है जैसे स्वयं पर दया अभीष्ट होती है दूसरों पर भी होनी चाहिये।

रविवार, 27 सितंबर 2015

पर्यावरण ही जीवन है।

        हम और पर्यावरण

पर्यावरण जीवन का पर्याय है।स्वस्थ,स्वच्छ और समृद्ध पर्यावरण से ही समृद्ध,स्वस्थ और सुखी जीवन सम्भव है।कोई भी पर्यावरणीय क्षति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवश्य ही जीवन को प्रभावित करती है कोई भी इससे बच नहीं सकता सभी को सामान रूप से पर्यावरण में हुए नुकसान को भोगना पड़ता है।
     

सुविचार

बुद्धि का प्रयोग न करके मात्र मन को प्रिय लगने वाले विषयों के पीछे भटकाना पशुता है जिसको नष्ट कर मनुष्यता को जागृत करना धर्म का कार्य है।धर्म पाशविक प्रवृत्तियों और उच्छृंखल वृत्तियों को नष्ट कर मनुष्य में मर्यादा को स्थापित कर मनुष्य को दिव्यता प्रदान कर उसे समृद्धि के शिखर पर स्थापित कर देता है।
      ज्ञान के समान दूसरा कोई नेत्र नहीं है,सत्य के समान कोई और तप नहीं है,राग के समान अन्य कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान दूसरा कोई सुख नहीं है। केवल मान प्रतिष्ठा के लिए त्याग का स्वांग करना व्यर्थ है त्याग में भाव प्रधान है बाहरी क्रिया नहीं।
       धार्मिक व्यक्ति सबके साथ समान प्रेम करता है वह घृणा कर ही नहीं सकता।धार्मिक व्यक्ति सभी जीवों को आत्मतुल्य मानता है इसीलिए वह किसी का शोषण कर ही नहीं सकता।जो घृणा और शोषण करता है वह कदापि धार्मिक नहीं हो सकता।धार्मिक आत्मा से आत्मा को देखता और जानता है तथा उसी में संस्थित हो जाता है।
अहिंसा परमो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः।
     चराचर किसी भी जीव का हनन करना हिंसा है।मन,वचन और कर्म से किसी भी जीव को कष्ट पहुँचाना भी हिंसा है।हिंसा से बढ़कर कोई अन्य पाप नहीं है और अहिंसा से बड़ा कोई अन्य धर्म नहीं है अर्थात अहिंसा ही परम धर्म है।
    
       सत्य कहना सुनना और सहना कठिन होता है परन्तु सत्य अकेले रहते हुए भी सत्ता का स्वामी होता है।सत्य कहने सुनने एवं सहने वाले व्यक्ति का जीवन भले ही स्वयं के लिए कंटकाकीर्ण व तममय हो लेकिन औरों के लिए चरित्र आदर्श एवं स्थापनाओं का मार्ग प्रशस्त करते हुए ज्ञान का दीपस्तंभ बनकर सही दिशा प्रदान करता है।

        आत्मावलोकन प्रत्येक लक्ष्य की प्राप्ति का सबसे महत्वपूर्ण साधन है।जिस प्रकार दीपक स्वयं के नीचे स्थित अँधेरे को कभी समाप्त नहीं कर पाता उसी प्रकार मानव मात्र भी स्वयं के भीतर ही स्थित अज्ञान रूपी दोष को न तो देख पाता है और न ही उसे समाप्त कर पाता है और स्वयं की असफलता पर औरों को दोषी ठहराता रहता है जो यह समझने में सफल हो जाता है कि स्वयं की असफलता का प्रमुख कारण वह स्वयं है कोई और नहीं तो उसे उसके लक्ष्य की प्राप्ति में कोई बाधा और विघ्न नहीं आते।
    प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य पृथक-पृथक तरीके से करता है जिसको पूर्णतयः उसी रूप में कोई अन्य नहीं कर सकता हम मात्र औरों को ही देखने और उनकी नकल करने में ही अपना बहुमूल्य समय और ऊर्जा नष्ट कर देते हैं स्वयं को देखने समझने का समय ही नहीं निकाल पाते जिसकी शक्ति से हमें जीवन मार्ग पर आगे बढ़ना होता है।सदैव दूसरों का अनुकरण हमें निर्बल,ईर्ष्यालु और क्रोधी तो  बनाता ही है साथ में स्वयं से भी अपरिचित बना देता है जो सम्पूर्ण विकास को अवरुद्ध कर देता है।

            जिस वस्तु के देखने से लोभ बढ़ता हो उसे देखते रहने से बढ़कर कोई पाप नहीं है।हम अप्रसन्न हैं क्योंकि हमारी इच्छाएं अनंत एवं मूर्खतापूर्ण हैं,यदि हम वास्तव में सुखमय जीवन चाहते हैं तो वह अनायास ही नहीं आने वाला वरन् सुविचारों, सुकर्मों और सुशब्दों के द्वारा वह बनाया जा सकता है।हृदय को पवित्र व नैतिक नियमों का पालन कर हम अपना स्वाभाव दुखों से मुक्ति हेतु बदल सकते हैं जो मात्र इच्छाशक्ति पर निर्भर है।
  सम्पूर्ण जगत मात्र इन्द्रियों के सुख की प्राप्ति हेतु प्रयत्नरत है।इन्द्रियों का सुख ही भोग है भोग की चेष्टा व्यर्थ है। इन्द्रियों का सुख विनाशी है भोग्य पदार्थों के बने रहने पर भी एक दिन भोगने की शक्ति समाप्त हो जाती है।भोग से निवृत्ति में ही वास्तविक आत्म सुख की प्राप्ति होती है।आत्म सुख अविनाशी है जो संयम,तप और तितिक्षा से प्राप्त होता है जो अनंत काल तक रहता है ।
      असत्य स्वार्थ की पूर्ति कराकर क्षणिक सुख तो करा देता परंतु दीर्घकालिक दुःख,क्षोभ और कष्ट भी दे जाता है लेकिन सत्य का अनुसरण और अनुकरण चाहे अनुभूति या अभिव्यक्ति तक क्षणिक दंश देता हो फिर भी उसका फलागम चिरानन्द की अनुभूति और स्थाई सुख का उत्कर्ष है।सत्य साक्षात् देव सत्तात्मक है और देवत्व की अनुभूति कराता है।
     
      किया गया कर्म एक दिन अपना प्रतिफल अवश्य देता है और कभी-कभी कालान्तर और जन्मान्तर में भी ।कोई भी कर्म कभी भी व्यर्थ नहीं होता बल्कि अपेक्षित अनुकूलताओं के आने तक वह प्रतीक्षारत रहता है।
     जिसका अर्थ पवित्र है वही पवित्र है।मिट्टी-पानी के उपयोग से स्वयं को पवित्र मानने वाला व्यक्ति कदापि पवित्र नहीं है क्योंकि समस्त पवित्रताओं में अर्थ की पवित्रता ही शास्त्रों में सर्वोपरि बताई गयी है।

      आज स्वच्छता के आभाव में गांव और शहर दोनों त्रस्त हैं।स्वच्छता के बिना शुचिता नहीं आती और बिना शुचिता के मन को प्रशन्नता नहीं मिलती, प्रसन्नता से मन को स्फूर्ति मिलती है जो अकर्मण्यता को नष्ट कर समृद्धि,श्री और जय से साक्षात्कार कराती है।
  
संसार में प्रेम अति महत्वपूर्ण है, प्रेम में ही सबका कल्याण है। प्रेम केवल मानव और मनुष्यता से ही नहीं प्रत्येक प्राणी के मध्य होना चाहिये।

धीरे-धीरे मनुष्य पुनः मात्र स्थूल शरीर बनने की ओर अग्रसर है।   जो स्वयं की चाह में स्वयं से ही निरंतर दूर होता जा रहा है।आत्मा और आत्मानुभूति जो शरीर की ऊर्जा है विलुप्त होती जा रही है जहां से मानवीय सभ्यता का उदगम् हुआ था पुनः उसी स्थान पर इतना चलने के बाद भी पहुँच रहे है।संवेदनाविहीन और आत्माविहीन मानव स्थूल शरीर मात्र ही है।

प्रार्थना के द्वारा मनुष्य में जो बुद्धि की निर्मलता,सूक्ष्मता,नैतिक बल,आत्मश्रद्धा जो आध्यात्मिक शक्ति और आत्मविकास और जीवन को संतप्त करने वाले जटिल सांसारिक प्रश्नों को सुलझाने की समझ और ज्ञान की प्राप्ति होती है।

जिनकी विद्या विवाद के लिए,बुद्धि ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अन्धकार सदृश है।

जो अहिंसावृती,दयालु और मानवतावादी है उसके धर्मनिरपेक्ष होने और न होने से किसी को कोई क्या क्षति पहुँच सकती है।प्रत्येक हिन्दू धर्मावलंबी में उक्त विशेषतायें प्रचुर मात्रा में कर्तव्य और संस्कार के रूप में विद्यमान रहती हैं।

मनुष्य के कर्मों की परीक्षा विपत्ति में ही होती है जो सद्कर्म करते हैं वे प्रत्येक विपत्ति का सामना साहसपूर्वक कर पाने में सक्षम होते हैं ।

अकर्म की अपेक्षा कर्म करना श्रेयस्कर है अकर्म से तो प्राणिमात्र इस जीवन की यात्रा भी नहीं पूरी कर सकता अकर्मण्यता हमें मार्गभ्रष्ट कर देती है इसलिए हमें नियत कर्म अवश्य ही करते जाना चाहिए।

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

श्री नारायण

श्री लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः
उमामहेश्वराभ्यां नमः
श्री सिद्धिविनायक नमो नमः
श्वेताङ्गं श्वेतवस्त्रं सितकुसुमगनैः पूजितं श्वेतगंधेयः,क्षीराबधौ रत्नदीपैह सुरवरतिलकं रत्नसिंहासनस्थम्।
दोर्भि: पाशाङ्कुशाब्जाभयधरमनिशं चंद्रमौलिम् त्रिनेत्रं,ध्यायेच्छान्त्यर्थमीशं गणपतिममलं श्रीसमेतं प्रसन्नम्।

बिना भगवान की कृपा के सुकर्म भी सम्भव नहीं भगवान जिसको ऊँचा उठाना चाहते हैं उससे ऊँचे कर्म करवाते हैं जिसे नीचे धकेलना चाहते हैं उससे नीच कर्म करवाते हैं यहाँ तक कि भगवत्प्राप्ति भी भगवत्कृपा के बिना सम्भव नहीं वे स्वयं साधन और साध्य दोनों हैं।

श्री हरि ही सम्पूर्ण देहधारियों की आत्मा,नियामक और स्वतंत्र कारण हैं उनके चरणतल ही मनुष्यों और प्राणियों के एकमात्र आश्रय हैं और उन्हीं से संसार में सबका कल्याण हो सकता है।

सर्वारिष्टहरं सुखैकरमणं शान्त्यास्पदं भक्तिदं स्मृत्या ब्रह्मपदप्रदं स्वरसदं प्रेमास्पदं शाश्वतम्।
मेघश्यामशरीरमच्युतपदं पीताम्बरं सुन्दरं श्रीकृष्णं सततं ब्रजामि शरणं कायेन वाचा धिया।।
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ॐ श्री कृष्णाय नमः
ॐ श्री माधवाय नमः
सर्वेषां स्वस्तिर्भवतु
सर्वं मङ्गलं अस्तु
सादर अभिनंदनम्
वन्देमातरम्
ॐ शांतिः

रविवार, 6 सितंबर 2015

सदविचार

आनंद का अक्षय निवास मन में है और वहीं ज्ञान का अनंत भंडार भी है मन की एकाग्रता मात्र से ही दोनों को प्राप्त किया जा सकता है। सच्चिदानंदघन तो एकमात्र परम सत्ता है और वह प्राणिमात्र के मन में निवास करती है स्वयं को अंतर्मुखी बनाकर उसे सहजता से प्राप्त किया जा सकता है।विश्व के समस्त सुख तथा ज्ञान उसी आनंदघन की एक रश्मि मात्र है जो मन से ही आती है।जैसे रंगीन शीशे में सूर्य का प्रकाश रंगीन दिखता है वैसे ही विकार ग्रस्त एवं मलिन मन में वह आनंद और ज्ञान विकृत एवं मलिन होकर सुख की भ्रान्ति बन जाता है।

सनातनी अनुशाशन प्रेम,दया,त्याग,समर्पण और कर्तव्य की भावना पर आधारित है यह किसी कोड या बिल की अपेक्षा नहीं करता, केवल इन्हीं दिव्य गुणों के बल पर सम्पूर्ण सनातनी जनसँख्या आदि काल से दिव्य सामन्जस्य के साथ अपने अपने कर्तव्यों में निरपेक्ष रूप से बंधी हुई है।
       जगत के प्रत्येक प्राणी में सीखने के गुण ईश्वरीय उपहार स्वरुप सहज रूप से  विद्यमान है परंतु जैसे ही अहंकार की काली छाया इन पर पड़ती है ये अदृश्य हो जाते हैं और प्राणी के पतन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।
          मानव अल्पज्ञ है वह समस्त सृष्टि से परिचित नहीं है साथ ही सृष्टि के अनंत प्राणियों की अनंत कर्म राशि से भी परिचित नहीं है इसलिए किस प्राणी के कर्म का प्रभाव प्रकृति के किस स्तर पर कैसा पड़ता है इसका निर्णय मनुष्य की सामर्थ्य के बाहर है ।इसका निर्णय केवल इस सृष्टि का रचनाकार ही कर सकता है जिसने सभी प्राणियों की रचना प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने के लिए की है।फिर मानव मात्र किसी भी प्राणी के जीवन के सम्बन्ध में कोई निर्णय कैसे कर सकता है यदि करता भी है तो वह आत्मघाती ही सिद्ध होगा।
          सच्चा प्रेम हमे खुद से भी बेहतर बनने के लिए प्रेरित करता है जब हम यह कोशिश करते हैं तो आसपास की प्रत्येक वस्तु बेहतर बनने लगती है।

           जगत में सभी जीव सुख की इच्छा करते हैं सुख ही सबका साध्य है।सुख भी ऐसा जो सबसे बढ़कर हो जिसमें किसी तरह की जरा भी कमी न हो,जो सदा एक सा बना रहे,कभी घटे नहीं,कभी हटे नहीं, जो अनंत,असीम,नित्य और पूर्ण हो।ऐसा इस परिवर्तनशील संसार में कदापि नहीं हो सकता। यहाँ अनंत,असीम,अखंड,नित्य और पूर्ण तो कुछ भी नहीं है।

   सतत्,सुदृढ़ और अविचल भाव से सत्य का आचरण करना और प्रेमभाव और सहानुभूति को बढ़ाये रखना यही सबसे सुगम,सबसे स्पष्ट और सबसे अधिक अमोघ साधन है जो सरलता से सबकी समझ में आ जाता है और जिसके द्वारा कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी नियंत्रित रहा जा सकता है।

             धर्म स्वार्थ की पूर्ति का साधन मात्र नही है,अपितु यह मानव और मानव मूल्यों के संरक्षण और उत्थान के उद्देश्य से प्रचलित है। परोपकार और मानव सेवा ही धर्म की नींव  है जिसके बल पर आदिकाल से यह अपने स्थान पर स्थिर है ।
      जहां धर्म है वही जय है,सुख है धर्म भगवान नन्दनन्दन का साक्षात् रूप  है।
जीवन में सत्याचरण चरित्र निर्माण एवं सफलता की अचूक औषधि है।सत्य प्रभु एवं प्रभुता का पर्याय है जो हमें देवत्व के आवरण में लपेट कर निर्भयता व जय का साक्षात्कार कराता है।सत्य मानव और मानवता का सौंदर्य है और श्री का पर्याय है।

    मात्र भोग की ही चिंता और भोगने में ही सम्पूर्ण जीवन को समाप्त कर देना मानव जीवन का घोर दुरूपयोग है।ऐसा तो पहु करते हैं जो केवल पेट भरने में ही अपना सम्पूर्ण जीवन नष्ट कर देते हैं।

शिक्षक के ऊपर सामाजिक शांति का महान दायित्व है वह अपनी आदर्श शिक्षा चरित्र शीलता और प्रेमानुशासन से मानव मन के विभिन्न विकारों का शमन एक योग्य चिकित्सक की भांति कर उसे निष्काम कर्म करने की प्रेरणा प्रदान कर सर्वत्र सामाजिक शांति स्थापित करता है।

जो त्यागी,तपस्वी,संयमशील और आत्मज्ञानी है और स्वयं अपने चरित्र का निर्माता है,इन्द्रियों,मन और वाणी पर अधिकार रखता है तथा देहसुख की वासनाओं से निवृत्त है वही सभी मनुष्यों पर प्रेम पूर्वक अनुशासन कर सकता है एवं सबका श्रद्धाभाजन भी हो सकता है।

मन रूपी रावण बहुत चंचल और शक्तिशाली  है इसने प्रत्येक को केवल कष्ट ही दिया है।जिसने केवल मन को साध लिया,वश में कर लिया उसकी जीत को देवता नहीं टाल सकते जिसने इसे परास्त कर दिया उसने विजय की चौखट छू ली।

     जगत में मानव मात्र की आत्मा का सम्बन्ध प्राण और प्रज्ञा से है।ज्ञान,मन,बुद्धि और प्राणों के सहयोग से जो प्रार्थना की जाती है उस प्रार्थना से एक विशेष किया का संचरण होता है और उसके परिणाम में एक विशेष आध्यात्मिक प्रकाश का उदय होता है जो मन की प्रत्येक व्याकुलता को समाप्त कर देता है।

जब शरीर सशक्त हो उसी समय जीवन को धर्मपरायण बनाया जा सकता है बृद्धावस्था में कुछ भी नहीं किया जा सकता वृद्धावस्था में तो यह शरीर भी भाररुप प्रतीत होता है तो परमार्थ कैसे हो सकता है।

हिन्दू संस्कृति में जन्मान्तरवाद की प्रमुख मान्यता है इसके अनुसार वर्तमान जन्म में जीव प्रधान रूप से जो भी कार्य करता है वे चित्त में अंकित हो जाते हैं और वही कर्म अगले जन्म के प्रारब्ध के बीज होते हैं जो अगले जन्म में फलित होते हैं।

        जीवन के अंत में समस्त परेशानियां ठीक ही जाती है जब तक सब कुछ ठीक नहीं हो जाता जीवन गतिशील रहता है।संघर्ष का सिलसिला ही हमें जीवित रखता है।
कुछ लोग केवल वही बातें सुनते हैं जो उनके अनुकूल होती हैं और वे उसी के अभ्यस्त होते हैं और अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण वे वह बात भी काट देते है जो सत्य और शाश्वत होती है।

  व्यक्तित्व में सकारात्मक बदलाव औरों की बातों पर अधिक ध्यान न देने से आता है जब हम औरों की बातों की अपेक्षा स्वयं पर ध्यान देते हैं तो हमारा मस्तिष्क खुद ही उचित निर्णय लेने का धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाता है जिससे आत्मनिर्भरता और मानसिक परिपक्वता जागृत हो जाती है।

धन संपत्ति पद प्रतिष्ठा और सुविधाओं का होना जरुरी है  इसमें कोई शक नहीं कि ये चीज़े जीवन को सरल और प्रभावशाली बनाती हैं लेकिन स्वयं की प्रशन्नता और सफलता को मात्र इन्हीं वस्तुओं के इर्द-गिर्द समेट रहे हैं और वह हर वस्तु प्राप्त करना चाहते है जो औरों के पास है तो आप स्वयं को निराशा की ओर ले जा रहे हैं।

आभूषणों से लदे मुर्दे की तरह आज का मानव और उसका स्वाभाव हो गया है।

असली सवाल यह है की भीतर तुम क्या हो ? अगर भीतर गलत हो, तो तुम जो भी करगे, उससे गलत फलित होगा. अगर तुम भीतर सही हो, तो तुम जो भी करोगे, वह सही फलित होगा.

 कर्म नहीं बांधते, करता बांध लेता है, कर्म नहीं छोड़ता है,करता छुट जाये तो छुटना हो जाता है.

संचित नष्ट हो सकता है परन्तु प्रारब्ध का कभी नाश नहीं होता, हाँ कोई नवीन प्रबल कर्म तत्काल प्रारब्ध बनकर बीच में अपना फल भुगता सकता है और पहले के प्रारब्ध को कुछ समय के लिए रोक सकता है परन्तु प्रारब्ध भोगना अवश्य पड़ता है।

सत्कर्म और सद्व्यवहार करने में यह आशा नहीं करनी चाहिए कि अगला करेगा तो हम भी करेंगे इनका प्रारम्भ सदैव अपनी ओर से करना चाहिए।

जब तक आदमी सृजन की कला नहीं जानता तब तक अस्तित्व का अंश नही बनता।

दुःख के सिवाय किसी अन्य उपाय से हम अपनी शक्ति को नहीं जान सकते हम जितना कम खुद को जानेंगे हमारा विस्तार उतना ही कम होगा सदैव सुख की ही चाह हमें कभी सुखी नहीं होने देती।

मानवता जब अपना कर्तव्य भूलकर भोग-वासना की ओर चली जाती है तब पशुता बन जाती है और पशुता परिपक्व होकर दानवता का रूप ले लेती है।

एक बार लिया गया प्रभु का नाम जितने पाप हर लेता है किसी जीव की इतनी शक्ति नहीं कि वह जीवन भर उतने पाप कर सके।

जिस प्रेम को पाकर प्राणी सिद्ध,अमर और तृप्त हो जाता है,जिसे पाकर फिर किसी अन्य वस्तु की कामना नहीं करता,किसी बात का सोच नहीं करता,किसी से द्वेष या राग नहीं करता,विषय सेवन नहीं करता वह तरता है और सम्पूर्ण लोकों को भी तारता है।

नाव का जल में रहना जरुरी है लेकिन नाव में जल नहीं होना चाहिये,इसी प्रकार इंसान का संसार में रहना जरुरी है लेकिन उसके भीतर संसार नहीं रहना चाहिये।

जो व्यक्ति क्रोधित होकर तेज आवाज़ में अपना विरोध प्रकट करता है वह अज्ञानी है ज्ञानी तो शांतचित्त से क्रोध को अपने वश में कर सुकार्यों से विरोधियों को जवाब देते हैं।

सभी प्राणियों को ईश्वर उनके कर्मों के अनुसार ही फल देता है किसी को क्षमा नहीं करता।जिस तरह मनुष्य कार्य करने के लिए स्वतंत्र है उसी प्रकार ईश्वर कर्मानुसार फल प्रदान करने के लिए भी स्वतंत्र है।

बुरे कार्यों को क्षमा कर देने से न्याय नष्ट हो जाता है, और क्षमा की आशा में पापी महापापी बन जाता है।

जब तक आप यह नहीं जान और समझ जाते की कल कभी आने वाला नहीं है तबतक आप आज की कद्र करना नहीं सीख सकते।

आपका सदा प्रसन्न रहना आपके विरोधियों और उनके लिए जो हमेशा आपका अहित सोचते हैं के लिए सबसे बड़ी सज़ा है।

जब आप निःस्वार्थ भाव से प्रेम करना सीख जाते हैं तो आपको निश्चित ही स्वर्ग में होने की अनुभूति होने लगती है।

हम परिस्थितियां नहीं बदल सकते पर अपना दृष्टिकोण अवश्य ही बदल सकते हैं जो अवश्य ही हमें नए रास्तों का साक्षात्कार करा देगा।

अगर व्यक्ति के जीवन की समस्त सांत्वनायें छिन जाएं तो जीवन इतना दुखमय प्रतीत होगा कि मानों सर्वस्व लुट गया हो परन्तु यही दुःख यही खालीपन व्यक्ति को एक नयी प्रभा में जगाने भी काम करता है सांत्वनायें व्यक्ति को सुला देती हैं ।

सत्य बोलने वाले को समाज में एक अलग ही पहचान मिलती है लोग उससे निर्भय होकर जुड़ जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि सत्यवादी व्यक्ति उनके साथ कभी कोई कपट नहीं करेगा।

सत्य के साथ रहने वाले मनुष्य का मन हल्का और चित्त प्रसन्न रहता है,जिसका असर उसके स्वास्थ्य पर पड़ता है और वह आजीवन निरोगी रहता है ।

विश्व में न्याय और चिरशांति की स्थापना हेतु भगवतभक्ति ही एक मात्र उपाय है जो राजनीतिज्ञ और किसी योद्धा के द्वारा कदापि स्थापित नहीं की जा सकती।

सुख की कल्पना मात्र मृग मरीचिका है जिसके पीछे लोग हर मोड़ और हर दिशा से विना विचारे  बस दौड़ने लगते हैं ।

मनुष्य छोटे-छोटे निजी स्वार्थों के कारण अपने समस्त उत्तरदायित्व भूल जाता है और औरों का बड़े से बड़ा नुकसान कर देता है परंतु धर्ममार्गी व्यक्ति ऐसा नहीं करता है।

प्रार्थना हमारे मृतप्राय विश्वास को पुनर्जीवित करने वाली संजीवनी है,जो प्रत्येक परिस्थिति में प्रभावकारी होती है ।

जिस प्रकार कोई भी जल समुद्र में मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाता है उसी प्रकार सभी आत्मायें भी परमात्मा से मिलकर तदाकार हो जाती हैं।

साधुजन अखिल विश्व के मंगल में ही अपना मङ्गल देखते हैं उनके मन में कोई ऐसी कामना नहीं आती जो किसी भी प्राणी के लिये अमङ्गल हो,उनके प्रत्येक मङ्गल में सबका मङ्गल समाहित रहता है और सबके मङ्गल में ही उनका मङ्गल निहित रहता है।

दूसरे के दुःख को कभी अपना सुख न बनावें।अपना सारा सुख देकर दूसरे के दुःखों का हरण करें । यही परम सुख की प्राप्ति का साधन मात्र है।

समय परिवर्तन का पर्याय है हम सब प्रतिक्षण बदल रहे हैं जो इस परिवर्तन को स्वीकार कर लेता है समय उसी के साथ रहता है और जिसके साथ समय रहता है उसके लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं।

संसार में मांगने की वस्तु केवल प्रसन्नता है जिसने दूसरे की प्रसन्नता प्राप्त कर ली उसे सर्वस्व प्राप्त हो गया फिर उसे उससे कुछ भी मांगना शेष नहीं रह जाता।

जो मनुष्य भला है,वही सांसारिक विघ्नबाधा,सुखदुःख के चक्र से मुक्त है और स्वतंत्र है,और जो बुरा है वह बन्धन में है,परतंत्र है चाहे वह सम्राट ही क्यों न हो यही परम सत्य है।

संशय महानाश का कारण हैऔर असफलता का मूल है, वह धर्म,कर्म और अर्थ का पूर्णविनाश कर देता है इसके रहते जीव अपने अभीष्ट की सिद्धि कदापि नहीं कर सकता।

हमें एक तरफ तो सदा नवीन चीजों की चाह रहती है और पुरानी पकडे भी रहना चाहते हैं जब तक पुरानी चीज़ छोड़ेंगे नहीं नयी कैसे हासिल कर पाएंगे ।

अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल सबसे पहले अपने लिए करें दूसरे क्या कर,कह रहे हैं उस पर ऊर्जा व्यय करने के बजाय अपनी कमियों को सुधारते हुए आगे बढ़ें और अपनी खूबियों को और मजबूत बनाने पर ध्यान दें।

लालच एक मानसिक रोग है जो संपूर्ण विवेक को नष्ट कर देता है और व्यक्ति सामर्थ्यहीन होकर उचित और अनुचित में भेद कर पाने में असमर्थ हो जाता है।

अकड़,जल्द ही व्यक्ति की मानसिक मृत्यु हुई है इस बात को दर्शाती है।

समाज में यह वहम व्याप्त है कि अमुक व्यक्ति अमुक व्यक्ति को सुख दे रहा है और अमुक व्यक्ति अमुक व्यक्ति को दुःख दे रहा है लेकिन वास्तविकता कुछ और् ही है संसार में न कोई किसी को सुख दे सकताहै और न ही दुःख ।

स्वयं की अवनति पर लोगों को उतना कष्ट नहीं होता है जितना औरों की उन्नति पर होता है ।जो प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।

शासकों की नीति कदापि न होनी चाहिए कि परजा को किसी विशेष मत की ओर खींचें, बल्कि उथको 'उसी मत की रक्षा करनी चाहिए जो परचलित हो, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, क्योंकि देश, काल और जाति की परिस्थिति के अनुसार ही उसका जन्म और विकास हुआ है। अगर शासन किसी मत को दमन करने की चेष्टा करता है, तो वह अपने को विचारों में त्र्कान्तिकारी और व्यवहारों में अत्याचारी सिद्ध करता है, 

जीवन असुरक्षा का नाम है सुरक्षित तो केवल मृत्यु है हममे से कोई भी असुरक्षा नहीं चाहता केवल सुरक्षा ही चाहता है बड़ी अजीब विडम्बना है।

औरों की नकल करके स्वयं को नहीं निखारा जा सकता स्वयं को निखारने के लिए स्वयं को उसी रूप में दृढ़ता एवं समस्त ऊर्जा के साथ बिना औरों को देखे सतत् एवं सार्थक प्रयास करने होंगे।

मानव के अंतरात्मा में जो महान आदर्श का आकर्षण विद्यमान है वह उसे स्वाभाविक कर्म,ज्ञान और प्रेम से तृप्त नहीं रहने देता।कर्म, ज्ञान और प्रेम सुनियंत्रित होने पर ही मानव जीवन आदर्श की ओर अग्रसर होता है।