रविवार, 27 सितंबर 2015

सुविचार

बुद्धि का प्रयोग न करके मात्र मन को प्रिय लगने वाले विषयों के पीछे भटकाना पशुता है जिसको नष्ट कर मनुष्यता को जागृत करना धर्म का कार्य है।धर्म पाशविक प्रवृत्तियों और उच्छृंखल वृत्तियों को नष्ट कर मनुष्य में मर्यादा को स्थापित कर मनुष्य को दिव्यता प्रदान कर उसे समृद्धि के शिखर पर स्थापित कर देता है।
      ज्ञान के समान दूसरा कोई नेत्र नहीं है,सत्य के समान कोई और तप नहीं है,राग के समान अन्य कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान दूसरा कोई सुख नहीं है। केवल मान प्रतिष्ठा के लिए त्याग का स्वांग करना व्यर्थ है त्याग में भाव प्रधान है बाहरी क्रिया नहीं।
       धार्मिक व्यक्ति सबके साथ समान प्रेम करता है वह घृणा कर ही नहीं सकता।धार्मिक व्यक्ति सभी जीवों को आत्मतुल्य मानता है इसीलिए वह किसी का शोषण कर ही नहीं सकता।जो घृणा और शोषण करता है वह कदापि धार्मिक नहीं हो सकता।धार्मिक आत्मा से आत्मा को देखता और जानता है तथा उसी में संस्थित हो जाता है।
अहिंसा परमो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः।
     चराचर किसी भी जीव का हनन करना हिंसा है।मन,वचन और कर्म से किसी भी जीव को कष्ट पहुँचाना भी हिंसा है।हिंसा से बढ़कर कोई अन्य पाप नहीं है और अहिंसा से बड़ा कोई अन्य धर्म नहीं है अर्थात अहिंसा ही परम धर्म है।
    
       सत्य कहना सुनना और सहना कठिन होता है परन्तु सत्य अकेले रहते हुए भी सत्ता का स्वामी होता है।सत्य कहने सुनने एवं सहने वाले व्यक्ति का जीवन भले ही स्वयं के लिए कंटकाकीर्ण व तममय हो लेकिन औरों के लिए चरित्र आदर्श एवं स्थापनाओं का मार्ग प्रशस्त करते हुए ज्ञान का दीपस्तंभ बनकर सही दिशा प्रदान करता है।

        आत्मावलोकन प्रत्येक लक्ष्य की प्राप्ति का सबसे महत्वपूर्ण साधन है।जिस प्रकार दीपक स्वयं के नीचे स्थित अँधेरे को कभी समाप्त नहीं कर पाता उसी प्रकार मानव मात्र भी स्वयं के भीतर ही स्थित अज्ञान रूपी दोष को न तो देख पाता है और न ही उसे समाप्त कर पाता है और स्वयं की असफलता पर औरों को दोषी ठहराता रहता है जो यह समझने में सफल हो जाता है कि स्वयं की असफलता का प्रमुख कारण वह स्वयं है कोई और नहीं तो उसे उसके लक्ष्य की प्राप्ति में कोई बाधा और विघ्न नहीं आते।
    प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य पृथक-पृथक तरीके से करता है जिसको पूर्णतयः उसी रूप में कोई अन्य नहीं कर सकता हम मात्र औरों को ही देखने और उनकी नकल करने में ही अपना बहुमूल्य समय और ऊर्जा नष्ट कर देते हैं स्वयं को देखने समझने का समय ही नहीं निकाल पाते जिसकी शक्ति से हमें जीवन मार्ग पर आगे बढ़ना होता है।सदैव दूसरों का अनुकरण हमें निर्बल,ईर्ष्यालु और क्रोधी तो  बनाता ही है साथ में स्वयं से भी अपरिचित बना देता है जो सम्पूर्ण विकास को अवरुद्ध कर देता है।

            जिस वस्तु के देखने से लोभ बढ़ता हो उसे देखते रहने से बढ़कर कोई पाप नहीं है।हम अप्रसन्न हैं क्योंकि हमारी इच्छाएं अनंत एवं मूर्खतापूर्ण हैं,यदि हम वास्तव में सुखमय जीवन चाहते हैं तो वह अनायास ही नहीं आने वाला वरन् सुविचारों, सुकर्मों और सुशब्दों के द्वारा वह बनाया जा सकता है।हृदय को पवित्र व नैतिक नियमों का पालन कर हम अपना स्वाभाव दुखों से मुक्ति हेतु बदल सकते हैं जो मात्र इच्छाशक्ति पर निर्भर है।
  सम्पूर्ण जगत मात्र इन्द्रियों के सुख की प्राप्ति हेतु प्रयत्नरत है।इन्द्रियों का सुख ही भोग है भोग की चेष्टा व्यर्थ है। इन्द्रियों का सुख विनाशी है भोग्य पदार्थों के बने रहने पर भी एक दिन भोगने की शक्ति समाप्त हो जाती है।भोग से निवृत्ति में ही वास्तविक आत्म सुख की प्राप्ति होती है।आत्म सुख अविनाशी है जो संयम,तप और तितिक्षा से प्राप्त होता है जो अनंत काल तक रहता है ।
      असत्य स्वार्थ की पूर्ति कराकर क्षणिक सुख तो करा देता परंतु दीर्घकालिक दुःख,क्षोभ और कष्ट भी दे जाता है लेकिन सत्य का अनुसरण और अनुकरण चाहे अनुभूति या अभिव्यक्ति तक क्षणिक दंश देता हो फिर भी उसका फलागम चिरानन्द की अनुभूति और स्थाई सुख का उत्कर्ष है।सत्य साक्षात् देव सत्तात्मक है और देवत्व की अनुभूति कराता है।
     
      किया गया कर्म एक दिन अपना प्रतिफल अवश्य देता है और कभी-कभी कालान्तर और जन्मान्तर में भी ।कोई भी कर्म कभी भी व्यर्थ नहीं होता बल्कि अपेक्षित अनुकूलताओं के आने तक वह प्रतीक्षारत रहता है।
     जिसका अर्थ पवित्र है वही पवित्र है।मिट्टी-पानी के उपयोग से स्वयं को पवित्र मानने वाला व्यक्ति कदापि पवित्र नहीं है क्योंकि समस्त पवित्रताओं में अर्थ की पवित्रता ही शास्त्रों में सर्वोपरि बताई गयी है।

      आज स्वच्छता के आभाव में गांव और शहर दोनों त्रस्त हैं।स्वच्छता के बिना शुचिता नहीं आती और बिना शुचिता के मन को प्रशन्नता नहीं मिलती, प्रसन्नता से मन को स्फूर्ति मिलती है जो अकर्मण्यता को नष्ट कर समृद्धि,श्री और जय से साक्षात्कार कराती है।
  
संसार में प्रेम अति महत्वपूर्ण है, प्रेम में ही सबका कल्याण है। प्रेम केवल मानव और मनुष्यता से ही नहीं प्रत्येक प्राणी के मध्य होना चाहिये।

धीरे-धीरे मनुष्य पुनः मात्र स्थूल शरीर बनने की ओर अग्रसर है।   जो स्वयं की चाह में स्वयं से ही निरंतर दूर होता जा रहा है।आत्मा और आत्मानुभूति जो शरीर की ऊर्जा है विलुप्त होती जा रही है जहां से मानवीय सभ्यता का उदगम् हुआ था पुनः उसी स्थान पर इतना चलने के बाद भी पहुँच रहे है।संवेदनाविहीन और आत्माविहीन मानव स्थूल शरीर मात्र ही है।

प्रार्थना के द्वारा मनुष्य में जो बुद्धि की निर्मलता,सूक्ष्मता,नैतिक बल,आत्मश्रद्धा जो आध्यात्मिक शक्ति और आत्मविकास और जीवन को संतप्त करने वाले जटिल सांसारिक प्रश्नों को सुलझाने की समझ और ज्ञान की प्राप्ति होती है।

जिनकी विद्या विवाद के लिए,बुद्धि ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अन्धकार सदृश है।

जो अहिंसावृती,दयालु और मानवतावादी है उसके धर्मनिरपेक्ष होने और न होने से किसी को कोई क्या क्षति पहुँच सकती है।प्रत्येक हिन्दू धर्मावलंबी में उक्त विशेषतायें प्रचुर मात्रा में कर्तव्य और संस्कार के रूप में विद्यमान रहती हैं।

मनुष्य के कर्मों की परीक्षा विपत्ति में ही होती है जो सद्कर्म करते हैं वे प्रत्येक विपत्ति का सामना साहसपूर्वक कर पाने में सक्षम होते हैं ।

अकर्म की अपेक्षा कर्म करना श्रेयस्कर है अकर्म से तो प्राणिमात्र इस जीवन की यात्रा भी नहीं पूरी कर सकता अकर्मण्यता हमें मार्गभ्रष्ट कर देती है इसलिए हमें नियत कर्म अवश्य ही करते जाना चाहिए।

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