सोमवार, 2 नवंबर 2015

मन अमृत

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेंद्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।
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जिसने अपने को योगमय कर लिया है,जिसने आत्मशुद्धि कर ली है,जिसने आत्मनियंत्रण करके इन्द्रियों पर भी काबू पा लिया है,जिसने स्वयं को सबके साथ तन्मय कर लिया है,वह कर्म करते हुए भी उससे लिप्त नहीं होता है। 

स्वयं के कर्तव्यों को समय पर पहचान कर उनको पूर्णता प्रदान करना ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व का प्रथम गुण है।

धन्या सा जननी लोके धन्यो सौ जनकः पुनः।
धन्यः स च पतिः श्रीमान् एषां गेहे पतिव्रता।।
पितृवंश्या मातृवंश्याः पतिवंश्यास्त्रयस्रयः।
पतिव्रतायाः पुण्येन स्वर्गसौख्यानि भुञ्जते।।
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संसार में वह माता धन्य है,वह पिता धन्य है तथा वह भाग्यवान् पति धन्य है जिसके घर में पतिव्रता स्त्री विराजती है।स्त्री के पुण्य से उसके पिता,माता,पति इन तीनों के कुलों की तीन-तीन पीढ़ियां स्वर्ग सुख की प्राप्ति करती हैं पतिव्रता का चरण जहाँ जहाँ धरती पर स्पर्श करता है वह स्थान तीर्थ भूमि की भांति पावन,पवित्र और भाररहित हो जाता है।


वेशेन वपुषा वाचा विद्यया विनयेन च।
वकारैः पञ्चभिः युक्तः नरः भवति पूजितः॥
वेश (पहनावा), शरीर, वाणी, विद्या और विनय इन पाँच वकारों से युक्त पुरुष पूजित (सम्मानित) होता है।



अन्नेन धार्यते देह:, कुलं शीलेन धार्यते |
प्राणा मित्रेण धार्यन्ते, क्रोध: सत्येन धार्यते ||

शरीर को बनाये रखने के लिए अन्न की आवश्यकता होती है, खानदान की शोभा उत्तम आचरण से होती है, संकट के समय मित्र ही प्राणों के रक्षक बनते हैं और सच्चाई के सामने क्रोध शांत हो जाता है



ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा।
जघन्य गुण प्रवृत्तिस्था अधो गच्छति तामसा।।

सत्त्वगुण में स्थित पुरुष उच्च (लोकों को) जाते हैं राजस पुरुष मध्य (मनुष्य लोक) में रहते हैं और तमोगुण की अत्यन्त हीन प्रवृत्तियों में स्थित तामस लोग अधोगति को प्राप्त होते हैं।।
श्रीमद्भगवद्गीता 14


तत्त्वं चिन्तय सततंचित्तेपरिहर चिन्तां नश्र्वरचित्ते ।
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णतरणे नौका ॥
अर्थात :- सतत चित्त में तत्व का विचार कर, नश्वर चित्तकी चिंता छोड दे । एक क्षण सज्जन संगति कर, भव को तैरनेमें वह नौका बनेगी ।


प्राणी को हमेशा सत्य से ही प्यार करना चाहिए ,सत्य की शक्ति से ही वह हर स्थान पर विजय प्राप्त कर सकता है|


जीवन में कर्म और परिश्रम से ही फल मिलता है,जो हर समय अपने घर के ही ख्यालों में ही खोया रहता है उसे विद्या नहीं आ सकती|


सज्जन तिल बराबर उपकार को भी पर्वत के समान बड़ा मानकर चलता है।

दुर्जन पुरुष सज्जनता को कायरता मानते हैं और परिश्रम से कतराते है जो उनके पतन का मूल कारण होता है लेकिन सज्जन पुरुष निश्छल परिश्रम में जीते हैं जो अपने परिश्रम के बल पर एक दिन महापुरुष बन जाते हैं।

इंसानों के लबादे में जानवर होता जा रहा है समाज।
इन्सानो के लबादे में जानवर या जानवरों के लबादे में इंसान।

धनी वही व्यक्ति है जो दानी है जो देने में असमर्थ है वह सर्वथा दरिद्र है ऐसा सर्वथा दरिद्र जिसके पास सभी वस्तुओं का अभाव है वह वह वाणी और परिश्रम से दान करने का उपक्रम कर सकता है।


सनातन ही सत्य, सर्वोच्च,शान्ति और सर्वोत्तम है इसीलिए सबको सहज स्वीकार है।


अपने दुश्मनों पर विजय पाने वाले की तुलना में मैं उसे शूरवीर मानता हूं जिसने अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली है; क्योंकि सबसे कठिन विजय अपने आप पर विजय होती है।
अरस्तू



जो मनुष्य अपने क्रोध को अपने ही ऊपर झेल लेता है, वह दूसरों के क्रोध से बच जाता है।
सुकरात


जैसा शरीर होता है वैसा ही ज्ञान होता है। जैसी बुद्धि होती है, वैसा ही वैभव होता है।

परिश्रम करने से इंसान की गरीबी दूर हो जाती है और पूजा करने से पाप दूर हो जाते हैं|


अधर्म दुःख रूप है और धर्म सुखरूप है व्यक्ति धर्म और सदाचार से सुख एवं अभ्युदय का भागी होता है और अधर्म और दुराचार से उसे अपार दुःख भोग करना पड़ता है।


दान के विना प्राप्ति व्यर्थ है।

मानवता जब अपना परमार्थ कर्तव्य भूलकर भोग-वासना की ओर चली जाती है तब वह पशुता बन जाती है और यही पशुता मनुष्यता के विनाश का मूल है।


जो मनुष्य दयाहीन है,संवेदनशील नहीं है,करूणा हीन है और जिसके लिये स्वार्थ सिद्धि ही प्रमुख लक्ष्य है वह मनुष्य की योनि में साक्षात पशु है।


दूसरों के द्वारा जलाये गए दीयों का यात्रा में कोई मूल्य नहीं स्वयं के द्वारा प्रज्ज्वलित दिया सदैव अँधेरे में काम आता है।

यदि चाहते हो कि लोग तुम्हें प्यार करें,सम्मान दें और सहयोग करें तो फलदार वृक्ष की तरह झुकते जाओ,इतने विनम्र बन जाओ कि हर कोई तुम्हें पा सके कोई भी तुमसे दूर न हो।

जिसके मन में सदा विषयों की ही कामना रहती है,जो सर्वथा शरीर को आराम देने और सुख पहुँचाने में लिप्त है तथा जो अपने अभिमान के कारण सबसे ऐंठा रहता है ऐसे दीन और निर्बुद्धि मानव का कल्याण मात्र भगवान ही कर सकते हैं।

हममें अंदर और बाहर का संतुलन होना जरुरी है हमारा स्वाभाव वृक्ष की तरह होना चाहिए  ऊंचाई के साथ विनम्रता, सहजता,शुचिता और शांति भी उसी अनुपात में बढ़नी चाहिए।

जब हमारे कार्य,स्वाभाव और गुण औरों के लिए सदैव सुखदाई होंगे तभी हमारी प्रतिष्ठा,प्रसिद्धि व कीर्ति कायम रह सकती है।

आज का मनुष्य समृद्ध हो रहा है,किंतु अंदर से खाली हो रहा है।

मांगने की वस्तु तो केवल प्रसन्नता है जिसने प्रसन्नता मांग ली उसने सब कुछ मांग लिया,जिसने प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त कर ली उसने सर्वस्व प्राप्त कर लिया।

जो दर्द को महसूस करते हैं उसे समझते हैं और उसे स्वीकार करते हुए सतत् आगे बढ़ते हैं वे प्रसन्नता की मंजिल पर अवश्य ही पहुँचते हैं।

चन्द जरूरतों और स्वार्थ के पिंजरे में स्वयं को कैद रख कर हम रोज अनेकों महत्वपूर्ण खुशियों से हाथ धो बैठते हैं।

हमारे जीवन में कई सच ऐसे होते हैं जिन्हें दूसरों के सामने प्रकट करने से हम डरते रहते हैं ये हमें स्वयं भी स्वीकार नहीं होते ये भीतर ही भीतर हमें खोखला बनाते रहते हैं,और डराते रहते है हम मात्र आलोचना के भय से दोहरी जिंदगी जीते रहते हैं ।

असत्य हमें सदैव डराता है और कमजोर बनाता है जबकि सत्य सदैव निर्भय एवं शक्तिशाली बनाता है।

झूठ चाहे छोटा हो या बड़ा उससे पूर्ण मुक्ति ही हमें सुख और शांति प्रदान कर सकती है।

जो विपरीत परिस्थिथितियों में भी बिना विचलित हुए केवल लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हैं उन्हें सफलता अवश्य मिलती है।

लोभ हमारे विवेक को नष्ट कर देता है लोभ में पड़ कर हम ऐसे गलत कदम उठा लेते हैं जो हमारे स्वयं के लिए भी हानिकारक सिद्ध होते हैं।

जब तक आप स्वयं को नहीं जान जाते तब तक आप वह प्रत्येक वस्तु जो आपसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ी है के बारे में कदापि नहीं जान सकते।

जब हमें ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो भीतर की जिज्ञासा रूपी हलचल समाप्त हो जाती है,इन्द्रियां स्थिर हो जाती हैं,जुगुप्सा मिट जाती है और हमें परम शांति की अनुभूति होती है।

कोमल शब्दों से कठोर दिलों को भी जीता जा सकता है जबकि कठोर शब्द दूसरों की भावनाओं को आहत कर देते हैं जिससे मधुर से मधुर सम्बन्ध भी कटु हो जाते हैं।

जिसके भीतर कोई घाव नहीं है उसको कोई भी चोट नहीं पहुंचा सकता चोट किसी की बुराई से नहीं खुद के भीतरी घाव से ही पहुँचती है।

जो इंसान अपने कर्म को नहीं पहचानते वे आँखे होते हुए भी अंधे हैं स्वकर्म की सही पहचान ही हमें सही लक्ष्य की ओर उन्मुख करती है।

जिसके अंदर जानने और मानने की अगाध इच्छा होती है वही श्रद्धालु है और ज्ञानी भी बिना श्रद्धा के ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।

यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि जीवन असुरक्षा का दूसरा नाम है सुरक्षित तो केवल मृत्यु है फिर भी हममें से कोई मृत्यु नहीं चाहता सभी सुरक्षा कीआशा में जीवन ही चाहते हैं ।

प्रकृति ही सभी प्राणियों की जीवनदायिनी व पालनकर्ता माँ है ऐसा प्रत्येक कार्य जिससे माँ को कष्ट पहुँचता है तो वह निश्चित ही सभी बच्चों के लिये भी कष्टकारी होगा।

ध्येय को लक्ष्य में रखकर जो प्रार्थना शांत मन एवं निःस्वार्थ भाव से की जाती है उसमें अमोघ शक्ति होती है और ऐसी प्रार्थना का चमत्कार प्रार्थी के अनुभव में शीघ्र आ जाता है ।

जीव परमात्मा का ही अंशरूप है जब तक यह अपने मूल रूप में पूर्णतया समाहित नहीं हो जाता तब तक इसे शांति नहीं प्राप्त हो सकती यह जन्म जन्मांतर तक भटकता ही रहता है।

मनुष्य की सर्वोच्च शक्तियों का परमात्मशक्ति के साथ तादात्म्य ही मानव जीवन के उत्कर्ष की चरम सीमा है,इस ध्येय पर पहुँचने हेतु जो क्रियाशील प्रवृति है वह हमारी प्रार्थना है।

नैतिकता,सत्यता और सच्चरित्रता हमारे जीवन को उच्चता और धवलता की ओर ले जाती है।

मानवता मानव जीवन की अमूल्य निधि है जिसे मानव आज भौतिक विकास की चकाचौध में स्वयं को ही धोखा देता हुआ अपने मूल प्राकृतिक स्वभाव का स्वयं ही विनाश कर रहा है।

केवल स्वयं के ही सुख की लालसा में लोग नित नये-नये पापों का आयोजन कर उसे प्रगति समझ मदान्ध हो रहे हैं और निरन्तर इसे करते जा रहे हैं जैसे मानो उनके अलावा और किसी का कोई अस्तित्व ही नहीं ।

जो नेक काम करता है और नाम की इच्छा नहीं करता उसके चित्त की शुद्धि होती जाती है। उसका काम सहज ही परमशक्ति को अर्पण हो जाता है।

जो भीतर से नियम का पालन करे जिसका मन सरल बन जाये विकारमुक्त हो जाये जो काम,क्रोध और अहंकार से प्रभावित न हो उसे ही अनुशासित कहते हैं।

प्रार्थना ही मङ्गल का मूल है,सच्ची प्रार्थना होते ही सारे संकट टल जाते हैं।जिसने भी सच्चे मन से प्रार्थना की उसे उसकी अभीष्ट की अवश्य ही प्राप्ति हो गयी।

जो ईश्वर का नाम लेकर अपना प्रत्येक उद्योग प्रारम्भ करते हैं तथा ईश्वर नाम लेकर ही समाप्त करते हैं उनका वह कार्य निश्चित ही शुभ फल प्रदान करता है।

जिस किसी विचार या कार्य के परिणाम में दूसरों का अहित होता हो वह पाप है तथा जिस कार्य या विचार के परिणाम में दूसरों का हित होता हो वह पुण्य हैं।

शरीर एक नौका की तरह है जिसको नदी पार करने के उपरांत छोड़ना ही पड़ता है कोई भी नदी पार करने के बाद नाव को साथ नहीं ले जाना चाहेगा हम मात्र एक यात्री हैं और हमारा लक्ष्य कुछ और ही है।

सत्य को सान्त्वनायें ढक देती है जीवन में हमें सभी मित्र सम्बन्धी आदि सान्त्वना ही देते हैं जिससे हम निरंतर सत्य से दूर होते चले जाते हैं और मात्र सांत्वनाओं का बोझ ही शेष रह जाता है।

अगर मृत्यु पर मानव का वश चले तो उससे यही कहे कि जरा रुको अभी मैंने किया ही क्या है थोड़ा धन इकट्ठा कर लूँ थोड़ा मन इकठ्ठा कर लूँ,थोड़ा ऐसा कर लूँ थोड़ा वैसा कर लूँ  एक संस्मरण और जोड़ दूँ मैंने तुम्हें सदा अपना जाना और अपने से भी ज्यादा माना परन्तु तुमने क्या मुझे नहीं पहचाना।

जब सुख ज्यादा दिन नहीं टिक पाता तो दुःख भी कैसे टिकेगा?हम यह बात भली भांति जानते हुए भी दुःख आते ही बेचैन हो जाते हैं और नाराज हो किस्मत को कोसने लगते हैं।

हमारी सीमित सोच होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को नकार देती है हमारे विचार अंदर बंद पड़े रहते हैं वे दिनोदिन पुराने और अनुपयोगी होते जाते हैं फलतः हम जमाने में अप्रसांगिक हो जाते हैं ।

मन के बासी हो रहे विचारों को नई धूप एवं ऊर्जा प्रदान करने के लिए मन की खिड़कियां हमेशा तो नहीं परन्तु समय समय पर खोलते अवश्य रहें क्योकि बदलाव प्रकृति का मूल नियम है ।

जितनी आपको दुःख सहने की क्षमता होगी उतने ही आपके पास आएंगे,सुख और दुःख दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं यदि आप दुःख से दूर भागेंगे तो सुख स्वतः ही आपसे दूर हो जायेंगे।

लोक जितना बड़ा है अलोक भी उतना ही व्यापक है जो दिख रहा है उसे समझने के लिए जो नहीं दिख रहा है उसे भी स्वीकार करना होता है।

रेत पर बने नक़्शे इस बात के प्रमाण हैं कि उस पर होकर अब तक क्या-क्या बह चुका है सभी के   सफर की पूरी कहानियां उसमें समाहित हैं।

मात्र निर्मलता का लबादा ओढ़कर मलीन व्यक्ति अपनी कुटिलता से आज समाज में श्रद्धेय बनते जा रहे हैं जो समाज को उचित मार्गदर्शन देने के बजाय उसे और भी भटका देते हैं।

आज मन की मलिनता को दूर करने का एक मात्र उपाय स्वाध्याय ही है क्योंकि तत्वदर्शी महामानवों का आज के आधुनिक समाज में टोटा  है जो आमजन के मन को अपनी सुसंगति से निर्मल बना देते थे।

जहाँ मैं और मेरा शुरू हो जाता है वहां यह डर आ घेरता है कि कोई और मालिक न हो जाये इसके बाद ईर्ष्या और भय शुरू हो जाते हैं घबराहट और चिंता शुरू हो जाती है,पहरेदारी शुरू हो जाती है और ये सब मिलकर प्रेम को नष्ट कर देते हैं।

यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसे जाने दें क्योंकि वह लौटता है तो आपका है यदि नहीं आता तो आपका था ही नहीं।

आपका अहंकार आपको औरों को स्वीकार करने ही नहीं देता जब तक आप किसी को हृदय से स्वीकार नहीं करते तबतक उससे आप प्रेम नहीं कर सकते,अहंकार आपसी प्रेम की राह में सबसे बड़ी बाधा है।

सामाजिक परिस्थितियों का असर मानव मन पर भी पड़ता है यदि परिस्थितियां बुरी होती हैं तो मन भी बुरा हो जाता है यदि अच्छी है तो निःसंदेह मन भी अच्छा हो जाता है ।

अर्थ और अधिकार की अदम्य लालसा से उन्मत्त मनुष्य सफलता की प्राप्ति हेतु किसी भी पाप से बचना नहीं चाहता और यही पापाचरण उसके पतन का प्रमुख कारण है।

यदि जीवन में सबकुछ आपकी इच्छा के अनुरूप होता चला जाये तो इसको आप भगवान् की कृपा मानिये यदि कुछ भी आपकी इच्छा के विपरीत हो तो उसे आप भगवान् की इच्छा समझिये।

यदि आपकी हथेली खुली है तो वह सबकुछ आपको प्राप्त हो सकता है जिसकी आप आशा करते हैं यदि हथेली बंद होती है तो परिणाम इसके विपरीत आते हैं।

मानवता जब अपना परमार्थ कर्तव्य भूलकर भोग-वासना की ओर चली जाती है तब वह पशुता बन जाती है और यही पशुता परिपक्व होकर दानवता का भयंकर रूप धारण कर लेती है।

जब प्रलय का समय आता है तो समुद्र भी अपनी मर्यादा छोड़कर किनारों को छोड़ अथवा तोड़ जाते है, लेकिन सज्जन पुरुष प्रलय के समान भयंकर आपत्ति एवं विपत्ति में भी अपनी मर्यादा नहीं बदलते।
स्वामी विवेकानंद

आत्मानंद की स्थिति स्वयं ही इतनी पूर्ण,सुखद एवं शान्तिमय है कि फिर कोई अभाव,अभिलाषा और द्वन्द्व शेष नहीं रहता है।

जो व्यक्ति प्रत्येक क्षण परमात्मा की शक्ति पर विश्वास बनाये रखते हैं,वे कभी परेशान हैरान नहीं रहते बल्कि ऐसे व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों को भी अपने पक्ष में करने की क्षमता रखते हैं, परमात्मा की शक्ति असीम होती है और इसके बल पर मनुष्य कुछ भी प्राप्त कर सकता है।

जो अभिमानी है वह संसार में सबसे बड़ा अनाथ है क्योंकि उसका कोई नाथ नहीं होता वह न तो किसी की बात मानता है न ही किसी को कुछ समझता है केवल अपनी ही रटता रहता है इसीलिए आज लगातार अनाथ बढ़ते जा रहे हैं।

कर्तव्य ही अधिकारों के जनक हैं बिना कर्तव्यों के चिन्तन के जो भी अधिकारों का चिंतन करते हैं वे महामूर्ख हैं ।

जो लोग धरती से जुड़े होने बाद भी आकाश की ऊंचाइयों को छू लेते हैं वे निःसंदेह स्थिर ,अचल एवं शान्त होते हैं और उन्हें पर्वत कहा जाता है ।

जहां सभी दंभरहित हों,धर्मपरायण और पुण्यात्मा हों,पुरुष और स्त्री सभी गुणीं हों, सभी गुणों का आदर करने वाले हों, विद्वान हों, ज्ञानी हों और दूसरों के द्वारा किये गए उपकार को मानने वाले हों,कपट और धूर्तता किसी में भी न हो इन गुणों से परिपूर्ण समाज अवश्य ही राम राज्य है।

संसार एक सागर की तरह है और हमें एक नौका की तरह इस सागर के पार उतरना है बिना कुछ भी ग्रहण किये अगर हम ग्रहण करने लग जाएंगे तो डूबना निश्चित है जो जितना अधिक और जल्दी संसार से ग्रहण करेगा उतनी ही जल्दी डूबेगा ।

जो प्राणियों को बारम्बार दुःख देते हैं और ऐसा करने पर उनको गर्व की अनुभूति होती है,आत्मसुख मिलता है, वे मनुष्ययोनि में साक्षात पिशाच हैं।

प्रेम  विस्तार  है , स्वार्थ  संकुचन  है।  इसलिए  प्रेम  जीवन  का  सिद्धांत  है। वह जो  प्रेम  करता  है  जीता  है , वह  जो  स्वार्थी  है  मर  रहा  है।    इसलिए  प्रेम  के  लिए  प्रेम करो , क्योंकि  जीने  का  यही  एक  मात्र  सिद्धांत  है , वैसे  ही  जैसे  कि  तुम  जीने  के  लिए सांस  लेते  हो।। स्वामी विवेकानंद।।

नृत्य ही अस्तिव है।अस्त्तिव के होने का ढंग ही नृत्यमय है,अणु परमाणु तक सभी नृत्य में लीन हैं उर्जा अनन्त रूपों में नृत्य कर रही है अर्थात सम्पूर्ण जीवन ही एक नृत्य है।। ओशो

अगर धन दूसरों की भलाई  करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है, अन्यथा, ये सिर्फ बुराई का एक ढेर है, और इससे जितना जल्दी छुटकारा मिल जाये उतना बेहतर है.

यदि दूसरों के दुःखों को देखकर आपका मन विचलित नहीं होता तो आप कुछ भी हो सकते हैं लेकिन मनुष्य कदापि नहीं हो सकते, असल में ईश्वर ने हमें दूसरों की भलाई करने के लिए ही तमाम तरह की शक्तियाँ व सामर्थ्य दिया है,प्रकृति के कण-कण में भी दूसरों पर उपकार करने की भावना दिखती है, सूर्य,चन्द्रमा, वायु, नदी,पेड़ पौधे आदि बिना किसी स्वार्थ के दूसरों की सेवा में लगे हैं।

यह समस्त संसार सत्य पर ही टिका है जिस दिन सत्य नहीं रहेगा यह संसार भी नहीं रहेगा सत्य ही शक्ति है, सत्य ही ऊर्जा है और सत्य ही प्रकाश है जिससे सम्पूर्ण जगत दृष्टिगोचर होता है।

अगर शिक्षा सुचरित्र का निर्माण नहीं करती है और लोगों को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत नहीं बनाती है तो वह शिक्षा व्यर्थ है

परमार्थ साधन के लिए किसी को कार्य,स्थान,वस्त्र और नाम बदलने की कोई आवश्यकता नहीं मात्र ईश्वर को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने से ही इसे सुगमतापूर्वक सिद्ध किया जा सकता
है।

ईश्वर ने मनुष्य को संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करने हेतु भेजा है उस उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मनुष्य को संसार में अपने समस्त कर्त्तव्यों का पालन सत्यता और निष्ठापूर्वक करना चाहिए।

अभिमान और अपमान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो अभिमानी हैं उन्हें निश्चित ही अपमान का भी सामना करना होगा।

आज हमारी समझ तो सही होती जा रही परन्तु जिन्दगी समझ के विपरीत ग़लत होती जा रही है कारण कि हम अपनी समझ और ज्ञान को व्यवहार में नहीं लाते उसे मस्तिष्क में ही बंद किये रहते हैं।

जिनका हृदय मद और अहंकार से उन्मत्त रहता है वे लोग स्वप्न और माया के समान मिथ्या हैं वे किसी के लिए भी कल्याणकारी सिद्ध नहीं हो सकते ।

बुरे लोगों की यह सबसे बड़ी अच्छाई है कि वे संगठित रहते हैं लेकिन भले लोगों की यह सबसे बड़ी कमी है कि वे संगठित नहीं रहते क्योंकि बुराई सदैव शक्ति की उपासक रही है और संगठन शक्ति देता है जबकि भलाई भक्ति में आस्था रखती और भक्ति के लिए शक्ति नहीं त्याग एवं निष्ठा की आवश्यकता होती है।

जब तक आप खुद पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते।यदि  स्वयं  में  विश्वास  करना  और  अधिक  विस्तार  से  पढाया  और  अभ्यास कराया   गया  होता  ,तो  मुझे  यकीन  है  कि  बुराइयों  और  दुःख  का  एक  बहुत  बड़ा हिस्सा  गायब  हो  गया होता।
स्वामी विवेकानंद

हिंसक पशुओं के साथ जंगल में और दुर्गम पहाड़ों पर विचरण करना कहीं बेहतर है परन्तु मूर्खजन के साथ स्वर्ग में रहना भी श्रेष्ठ नहीं है !

कभी मत सोचिये कि आत्मा के लिए कुछ असंभव है. ऐसा सोचना सबसे बड़ा विधर्म है.अगर कोई  पाप है, तो वो यही है; ये कहना कि तुम निर्बल  हो या अन्य निर्बल हैं।

बिना स्वयं की प्रप्ति के आप ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं पा सकते,कोई भी लक्ष्य नहीं साध सकते औरअगर स्वयं को पाना और जानना है तो दूसरों से अपना ध्यान हटाना होगा।

जीवन में बाह्य अनुशासन से ज्यादा महत्व भीतर के अनुशासन का होता है और भीतर का अनुशासन तभी आता है जब मन उठ रहे काम, क्रोध और लोभ के वेग को नियंत्रित किया जाये यह प्राणायाम से ही संभव हो सकता है।

जो औरों की नहीं सुनते हैं वे मानसिक रूप से मृत हैं।

जीवन में किये गये अच्छे कार्य आपकी स्मृति में सदैव आनन्द के रूप में बने रहते हैं कभी भी आपको चिंतित नहीं करते।

हम यह भूल गए हैं कि हम एक शांतिप्रिय जीव हैं, हमारी जीवनशैली ही हमें हिंसक बना रही है जीवन का मूल रूप प्रेम है हम स्वयं को अपने मूल से अलग कर रहे हैं।

अज्ञानी कर्म का प्रभाव ख़त्म करने के लिए लाखों जन्म लेता है जबकि आध्यात्मिक ज्ञान रखने और अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति एक क्षण में उसे ख़त्म कर देता है।
महावीर स्वामी

संतों के मिलने के समान जगत में कोई सुख नहीं है, क्योंकि मन, वचन और शरीर से परोपकार करना ही संतों का सहज स्वभाव है। महान संत आपको अच्छे विचार देते हैं, जिससे आप समाज की भलाई के लिए काम करते हैं।

कोई भी इस भ्रम में न रहे कि वह सर्वज्ञानी है या कोई हमेशा मूर्ख ही रहेगा। भगवान की जब जैसी इच्छा होती है, तब वह प्रत्येक प्राणी को वैसा बना देते हैं। इसलिए कभी किसी चीज का अहंकार नहीं करना चाहिए, जो अहंकार करते हैं। वह समाज में कभी आगे नहीं बढ़ पाते।

स्वर्णमयी लंका, लक्ष्मण मे न रोचते। 
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
भगवान राम छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं कि पूरी लंका नगरी ऊपर से नीचे तक सोने से मढ़ी हुई है, फिर भी हे लक्ष्मण, यह मुझे जरा भी अच्छी नहीं लग रही। मेरे लिए तो मां और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक मूल्यवान है। इस चौपाई से हमें यह सीख मिलती है कि जो व्यक्ति अपनी जन्मभूमि से जुड़ा रहता है, वहां के मूल्यों को आगे बढ़ाता है। वही दूसरों से आगे रहता है।

प्राकृतिक शक्तियों में देवी स्वरूप की अवधारणा मात्र यह इंगित करती है कि हम इनकी रक्षा करें, इनसे अनुराग रखें और स्वस्थ, संतुलित जीवनयापन करते हुए पर्यावरण की यथाशक्ति रक्षा करें। 

“जो आनंद प्रयत्न में है, भावना में है, वह मिलन में कहाँ ? गंगा उस मिलन से तृप्त नहीं हुई, उसने मिलन-प्रयत्न को अनंत काल तक जारी रखने का व्रत लिया हुआ है”।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

राग और ममत्व के प्रभाव के शिथिल हो जाने पर जीव में समत्व का भाव जागृत होता है । ममत्व से समत्व नहीं सधता है । ‘दोहावली ‘में गोस्वामी तुलसीदास भी कहते हैं,
“तुलसी ममता राम सों
समता सब संसार”

जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।
स्वामी विवेकानंद

मनुष्य का परमपिता परमेश्वर से प्रेम उसकी आध्यात्मिक चेतना के स्तर को दर्शाता है जो जितना अधिक ईश्वर से प्रेम करता है वह उतना ही आध्यात्मिक रूप से परिपक्व होता है।

जिन्हें स्वयं से नहीं औरों से उम्मीद होती है वे जीवन भर औरों की ओर ही देखते रहते हैं और उन्हीं की कमियां गिनाते रहते हैं इसके विपरीत जो स्वयं पर भरोसा रखते हैं वे औरों की परवाह किये बिना निरन्तर स्वयं को ही सुधारने का प्रयास करते रहते हैं औरों की कमियां देखने का उनके पास समय ही नहीं रहता वे निर्बाध रूप सेअपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं।

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