सोमवार, 14 मार्च 2016

सुकर्म विधा


गौरवान्वित होना और महसूस करना दोनों अलग अलग बातें हैं आज लोग गौरवान्वित होने के बजाय मात्र महसूस करने में ही संतुष्ट हो रहे हैं स्वयं का स्वमं के द्वारा महिमा मंडन करने से सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी आ जाती है।

मनुष्य ज्यों ही आत्मस्थ होकर ईश्वर के सानिध्य में समुपस्थित हो जाता है त्यों ही उसे अपनी खोई तथा क्षीण शक्ति वापस मिल जाती है और जीवन शान्तिमय हो जाता है।

मनुष्यता दया का पर्याय है,और हिंसा मनुष्यता का विलोम।मनुष्य की मनुष्यता संसार के सभी प्राणियों पर बिना दया के सुरक्षित नहीं रह सकती ।

जिस प्रकार मदिरा के घड़े में गंगाजल डालने से मदिरा पवित्र नहीं होती उसी प्रकार भगवान् से विमुख को कोई भी प्रायश्चित पवित्र नहीं कर सकता।

जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्यबन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्यकर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।

विडम्बना यह है कि हमें अपने अधिकारों की जितनी समझ है उतनी ही नासमझी हम अपने दायित्यों के प्रति दिखाते हैं जबकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जीवन के सत्य को जानने के लिए किसी विशेष तपस्या की आवश्यकता नहीं होती बल्कि व्यक्ति को सभी पूर्वाग्रहों को त्यागकर अपनी जिज्ञासा को उत्पन्न करके स्वयं से जुड़ने की जरुरत होती है।

प्रेम,दया,त्याग,क्षमा,भक्ति,ज्ञान,संयम,शुद्धता और करुणा, ये नौ शक्ति के गुण है जिस व्यक्ति में ये गुण विद्यमान होते हैं वह अजेय होता है ।

आज हर कोई ऐसे व्यवहार कर रहा है मानो वह कोई विशिष्ट व्यक्ति है और उसका जीवन अनन्त  काल तक स्थाई बना रहेगा।

आज तक कोई नहीं जान सका कि उसका जीवन कितने दिनों का और कितने पलों का है इस ज्ञान को दोहराने वालों की कमी नहीं है किंतु इस पर विश्वास करने वालों का घोर अभाव है।

अहंकार के कारण दिन प्रतिदिन अज्ञान का अँधेरा गहराता जा रहा है हम अपने अलावा किसी अन्य को महसूस करने में असमर्थ होते जा रहे हैं।

ममतारूपी कीचड़ में सना हुआ होने पर भी यह आत्मा जो परिग्रहशून्य चित्तरूपी जल से प्रतिदिन धोया जाता है यह आत्मशुद्धि हेतु श्रेष्ठतम प्रयत्न है।

जब जब संसार में प्राणियों पर घोर  संकट आया है तब तब माँ ने ही उनको संकटमुक्त किया है माँ के अलावा संसार में कोई अन्य शक्ति नहीं जो प्राणी को संकट से उबार सके।

मनुष्य का मैं वास्तव में स्थापित हो ही नहीं सकता हैक्योंकि उसकी कोई ज्ञात अवधि नहीं है पल में उसका विनाश हो सकता है फिर भी प्राणी इसी को जीवन भर सर्वस्व समझता रहता है।

जब ऐसा लगने लगे कि अब सब कुछ समाप्त हो गया है पाने को कुछ भी शेष नहीं है यही स्थिति एक नव जीवन के शुभागमन का स्वर्णिम संकेत है।

अपनी स्वंय की आत्मा के उत्थान से लेकर, व्यक्ति विशेष या सार्वजनिक लोकहितार्थ में निष्ठापूर्वक निष्काम भाव आसक्ति को त्याग कर समत्व भाव से किया गया प्रत्येक कर्म यज्ञ है।

अपने बारे में जानने का अर्थ अपनी रचना और अपने नाशवान होने के बारे में विश्वाश करना है यह विश्वास मनुष्य के आचरण को बदल देता है और उस परम् शक्ति के निकट ले जाता है जिसने उसे रचा है।

अनुशासन दो प्रकार का होता है एक बाहरी और एक भीतरी,बाहर का अनुशासन दिखावटी होता है और भीतर का अनुशासन मौलिक होता है।बाहर के अनुशासन के लिए हम व्यायाम करते हैं लेकिन भीतर के अनुशासन के लिए हमें प्राणायाम करना पड़ता है।

परमात्मा अमूर्त है उस अमूर्त को प्राप्त करने के लिए हमें खुद मूर्त से अमूर्त बनना पड़ता है,सारे विकारों को त्यागना पड़ता है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें