शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

शुभाषितनि

गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।
वर्तमानेन   कालेन    वर्तयन्ति   विचक्षणाः॥
उदये  सविता रक्तो  रक्त:श्चास्तमये  तथा।
सम्पत्तौ  च   विपत्तौ   च   महतामेकरूपता॥
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बीते हुए समय का शोक नहीं करना चाहिए और भविष्य के लिए परेशान नहीं होना चाहिए, बुद्धिमान तो वर्तमान में ही कार्य करते हैं ॥उदय होते समय सूर्य लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है, सत्य है महापुरुष सुख और दुःख में समान भाव रखते हैं।

विदेशेषु   धनं   विद्या   व्यसनेषु   धनं  मति:।
परलोके   धनं  धर्म:  शीलं  सर्वत्र  वै  धनम्॥
नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:।
नास्ति राग समं दुखं  नास्ति त्याग समं सुखं॥
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विदेश में विद्या धन है, संकट में बुद्धि धन है, परलोक में धर्म धन है और शील सर्वत्र ही धन है॥विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है॥

यदि सत्सङ्गनिरतो भविष्यसि भविष्यसि ।
तथा सज्जनगोष्ठिषु  पतिष्यसि  पतिष्यसि ॥
शमार्थं सर्वशास्त्राणि विहितानि मनीषिभिः ।
स एव सर्वशास्त्रज्ञः यस्य शान्तं मनः सदा।। **********************************
यदि आप सत्संग करते हैं तो आप वहीं स्थिर हो जाते हैं लेकिन जैसे ही आप सुसंगति से दूर होते हैं आपका पतन होने लगता है। विद्वान होने के लिए सभी शास्त्रों का ज्ञान होना चाहिए जिसे सभी शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है उसका मन सदा के लिए स्थिर और शांत हो जाता है।

वृक्षान् छित्वा पशून्हत्वा  कृत्वा रुदिरकर्दमम्।
यद्येवं   गम्यते   स्वर्गे   नरकः   केन   गम्यते।।
वनस्पतेरपक्वानि   फलानि   प्रचिनोति   यः ।
स नाप्नोति रसं तेभ्यो बीजं चास्य विनश्यति।।
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वृक्ष काटकर, पशुओं की हत्या करके और रक्तपात करके यदि लोग स्वर्ग जाते हैं तो नर्क कैसे जाते होंगे। जो व्यक्ति बिना पके ही फल को तोड़ लेते हैं वे फल के वास्तविक रस के साथ उसके बीज का भी नाश कर देते हैं।

कुसुमस्तवकस्येव    द्वयी     वृत्तिर्मनस्विनः ।
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य शीर्यते  वन  एव  वा  ॥
परिवर्तिनि  संसारे  मृतः  को  वा  न  जायते ।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥
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फूलों के गुच्छे की तरह विचारशील मनुष्यों की स्थिति भी इस संसार में दो प्रकार की होती है,या तो वे सर्वसाधारण के शिरोमणि बनते हैं या वन में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं। इस अस्थिर संसार में कौन है जिसका जन्म और मृत्यु न हुआ हो ? यथार्थ में जन्म लेना उसी मनुष्य का सफल है जिसके जन्म से उसके वंश के गौरव की वृद्धि हो। 

न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः   श्वः   करणीयानि   कुर्यादद्यैव   बुद्धिमान्॥
आयुषः  क्षण   एकोऽपि   सर्वरत्नैर्न   न   लभ्यते।
नीयते    स    वृथा    येन    प्रमादः    सुमहानहो ॥
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कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है।आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः इसको व्यर्थ में नष्ट कर देना महान असावधानी है॥

अतिथिश्चापवादी च द्वावेतौ विश्वबान्धवौ।
अपवादी हरेत्पापमतिथिः स्वर्गसंक्रमः।।
अभ्यागतं पथिश्रान्तं सावज्ञं योभिवीक्षते।
तत्क्षणादेव नश्यन्ति तस्य धर्मयशःश्रियः।।
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अतिथि और निन्दक ये दोनों विश्व के वन्धु हैं,निन्दक पाप हर लेता है और अतिथि स्वर्ग की सीड़ी बन जाता है।जो मार्ग से थककर आये हुए अतिथि को अवहेलना पूर्वक देखता है उसके धर्म यश और लक्ष्मी का तत्काल नाश हो जाता है।

उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत्।।
षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्याः भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
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जहाँ उद्यम,साहस, धैर्य,बुद्धि,शक्ति और पराक्रम ये छः गुण विद्यमान रहते हैं वहाँ सदैव देवता सहायता करते हैं और ऐश्वर्याभिलाषी पुरुषों को निद्रा,तन्द्रा,भय, क्रोध,आलस्य और शिथिलता नामक छः दोषों को त्याग देना चाहिये।

न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि  कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥
आयुषः क्षण एकोऽपि  सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन  प्रमादः सुमहानहो ॥ *********************************
कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है।आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः इसको व्यर्थ में नष्ट कर देना महान असावधानी है॥

चिता चिंता समाप्रोक्ता  बिंदुमात्रं विशेषता।
सजीवं दहते चिंता  निर्जीवं दहते चिता॥
क्षणशः कणशश्चैव  विद्यामर्थं च साधयेत्। 
क्षणत्यागे कुतो विद्या कणत्यागे कुतो धनम्॥ *********************************
चिता और चिंता समान कही गयी हैं पर उसमें भी चिंता में एक बिंदु की विशेषता है;चिता तो मरे हुए को ही जलाती है पर चिंता जीवित व्यक्ति को।क्षण-क्षण विद्या के लिए और कण-कण धन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। समय नष्ट करने पर विद्या और साधनों के नष्ट करने पर धन कैसे प्राप्त हो सकता है।

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयत् पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः ।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत् न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्॥
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति।। *********************************
प्रयास करने पर रेत से भी तेल निकला जा सकता है तथा मृग मरीचिका से जल भी ग्रहण किया जा सकता हैं। यहाँ तक की हम सींघ वाले खरगोशों को भी दुनिया में विचरते देख सकते है,लेकिन एक पूर्वाग्रही मुर्ख को सही बात का बोध कराना असंभव है। मूर्ख व्यक्ति को समझाना आसान है,और बुद्धिमान व्यक्ति को समझाना उससे भी आसान है, लेकिन एक अधूरे ज्ञान से भरे व्यक्ति को भगवान ब्रम्हा भी नहीं समझा सकते,क्यूंकि अधूरा ज्ञान मनुष्य को घमंडी और तर्क के प्रति अँधा बना देता है।
भर्तहरि

काष्ठादग्निर्जायते मथ्यमानात् भूमिस्तोयं खन्यमाना ददाति।
सोत्साहानां नास्त्यसाध्यं नराणां मार्गारब्धाः सर्वयत्नाः फलन्ति।।
भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैः नवाम्बुभिर्भूरिविलम्बिनो घनाः।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैषः परोपकारिणाम्।।
गृहं गृहमटन् भिक्षुः शिक्षते न तु याचते ।
अदत्वा मादृशो मा भूः दत्वा त्वं त्वादृशो भव ॥ *********************************
जैसे दो लकड़ियों के आपस मे रगड़ से आग पैदा हो जाती है और ज़मीन को लगातार खोदने पर वह पानी देती हैं वैसे उत्साहीजन के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं इनके सभी प्रयास सफल होते हैं। जैसे फल से लदे वृक्ष झुके होते हैं और पानी से भरे बादल आकाश में नीचे आ जाते है उसी तरह समृद्धिशाली,ज्ञानी और सत्यवादी पुरुष स्वभावतः परोपकारी ही होते हैं। एक भिखारी भीख हेतु घर घर घूमता ही नहीं बल्कि हमे यह भी शिक्षा देता है कि तुम भीख न देकर मेरे जैसा न बनो बल्कि भीख देकर स्वयं की ही तरह रहो।

तत्र विप्रा न वस्तव्यं यत्र नास्ति चतुष्टयम्।
ऋणप्रदाता वैद्यश्च श्रोत्रियः सजला नदी।।
जितमित्रो नृपो यत्र बलवान्धर्मतत्परः ।
तत्र नित्यं वसेत्प्राज्ञः कुतः कुनृपतौ सुखम्।। ******************************
जहां ऋण देने वाला धनी,वैद्य,ब्राह्मण तथा स्वच्छ जल से पूर्ण नदी ये चार न हों वहां कदापि निवास नहीं करना चाहिए।जहां बलवान और धर्मपरायण राजा हो वहीं विद्वान पुरुष को सदा निवास करना चाहिए,क्योंकि दुष्ट राजा के राज्य में सुख कहाँ है? (ब्रह्मपुराण)

नारिकेलसमाकारा दृश्यन्तेऽपि हि सज्जनाः।
अन्ये बदरिकाकारा  बहिरेव मनोहराः ॥
नाभिषेको न संस्कारः  सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य  स्वयमेव मृगेन्द्रता॥ ******************************
सज्जन व्यक्ति नारियल के समान होते हैं, अन्य तो बदरी फल के समान केवल बाहर से ही अच्छे लगते हैं ।कोई और सिंह का वनराज के रूप में अभिषेक या संस्कार नहीं करता है, अपने पराक्रम के बल पर वह स्वयं पशुओं का राजा बन जाता है।

स्वभावो  नोपदेशेन  शक्यते  कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥
अनाहूतः  प्रविशति  अपृष्टो  बहु  भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति  मूढचेता  नराधमः ॥
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किसी भी व्यक्ति का मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता है. चाहे आप उसे कितनी भी सलाह दे दो. ठीक उसी तरह जैसे पानी तभी गर्म होता है, जब उसे उबाला जाता है. लेकिन कुछ देर के बाद वह फिर ठंडा हो जाता है. बिना बुलाए स्थानों पर जाना, बिना पूछे बहुत बोलना, विश्वास नहीं करने लायक व्यक्ति/चीजों पर विश्वास करना ये सभी मूर्ख और बुरे लोगों के लक्षण है।

यथा चित्तं तथा वाचो  यथा वाचस्तथा क्रियाः ।
चित्ते    वाचि    क्रियायांच    साधुनामेक्रूपता ॥
षड्  दोषाः  पुरुषेणेह  हातव्या  भूतिमिच्छता ।
निद्रा  तद्रा  भयं  क्रोधः  आलस्यं  दीर्घसूत्रता ॥
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अच्छे लोगों के मन में जो बात होती है, वे वही वो बोलते हैं और ऐसे लोग जो बोलते हैं, वही करते हैं. सज्जन पुरुषों के मन, वचन और कर्म में एकरूपता होती है. छः अवगुण व्यक्ति के पतन का कारण बनते हैं नींद, तन्द्रा, डर, गुस्सा, आलस्य और काम को टालने की आदत।

न दद्यादामिषं  श्राद्धे  न  चाद्याद्धर्मतत्त्ववित् ।
मुन्यन्नै:  स्यात्परा  प्रीतिर्यथा  न  पशुहिंसया।।
नैताह्श:  परो  धर्मो  नृणां  सद्धर्ममिच्छताम् ।
न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक़्क़ायजस्य यः।।
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धर्मतत्वज्ञ को श्राद्ध में मांस सेवन व अर्पण नहीं करना चाहिए क्योंकि पित्तरों को ऋषि मुनियों के योग्य अन्न से जैसी प्रसन्नता होती है वैसी हिंसा द्वारा प्राप्तन्न से नहीं होती।जो लोग सद्धर्म के आचरण की इच्छा रखते हैं उनके लिए इससे बढ़कर कोई अन्य उपाय नहीं कि किसी भी प्राणी को मन,वाणी और शरीर से कोई कष्ट न दिया जाए।

द्वौ  अम्भसि   निवेष्टव्यौ   गले   बद्ध्वा   दृढां   शिलाम् ।
धनवन्तम्    अदातारम्     दरिद्रं      च     अतपस्विनम् ॥
त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सहृज्जनाश्च ।
तमर्थवन्तं पुनराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुष्यस्य बन्धुः ॥
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दो प्रकार के लोग होते हैं, जिनके गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए. पहला,वह व्यक्ति जो अमीर होते हुए दान न करता हो. दूसरा,वह व्यक्ति जो गरीब होते हुए कठिन परिश्रम नहीं करता हो । मित्र, बच्चे, पत्नी और सभी सगे-सम्बन्धी उस व्यक्ति को छोड़ देते हैं जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होता है. फिर वही सभी लोग उसी व्यक्ति के पास वापस आ जाते हैं, जब वह व्यक्ति धनवान हो जाता है. धन हीं इस संसार में व्यक्ति का मित्र होता है.

यस्तु  सञ्चरते  देशान्   सेवते   यस्तु  पण्डितान् ।
तस्य     विस्तारिता    बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥
परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः।
अहितः देहजः व्याधिः  हितम्  आरण्यं  औषधम्॥
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वह व्यक्ति जो विभिन्न देशों में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है. उस व्यक्ति की बुद्धि का विस्तार उसी तरह होता है, जैसे तेल का बून्द पानी में गिरने के बाद फैल जाता है।कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे, तो उसे परिवार के सदस्य की तरह महत्व देना चाहिए।और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए,तो उसे महत्व देना बंद कर देना चाहिए. ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुँचाने लगती है. जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है.

सत्येनार्क  प्रतपति  सत्येनापो  रसात्मिकाः।
ज्वलत्यग्निश्च सत्येन  वाति  सत्येन मारुतः।।
धर्मार्थकामसम्प्राप्तिमोक्षप्राप्तिश्च     दुर्लभा।
सत्येन जायते पुंसां तस्मात्सत्यं न संत्यजेत्।।
सत्यं ब्रह्म परं  लोके  सत्यं  यग्येषु  चोत्तमम्।
सत्यं स्वर्गसमायातं तस्मात्सत्यं न संत्यजेत्।।
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संसार मे सत्य का ही आदर होता है,भूतल पर जो कुछ भी सुख सामग्री है वह सत्य से ही प्राप्त होती है।सत्य से ही सूर्य तपता है,सत्य से ही जल में रस की स्थिति है,सत्य से आग जलती है और सत्य से ही वायु चलती है।मनुष्यों को सत्य से ही धर्म,अर्थ,काम और दुर्लभ मोक्ष की प्राप्ति होती है,अतः सत्य का परित्याग न करें।लोक में सत्य ही परब्रह्म है,यज्ञों में सत्य ही सर्वोत्तम है,सत्य स्वर्ग से आया हुआ है इसलिए सत्य को कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
ब्रह्मपुराण

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