गुरुवार, 13 अगस्त 2015

सदाचार

मनुष्यों ने अन्य प्राणियों पर स्वयं के स्वार्थ मात्र हेतु जो निर्दयता पूर्ण अत्याचार किये हैं उन्हीं के शाप के कारण आज मानव ही मानव का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है।यह उन निरीह और बेजुबान प्राणियों का अभिशाप है जिसे अब सम्पूर्ण मानवता को अपनों से ही संघर्ष के रूप में झेलना पड़ेगा।

तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठा है जो सदा ही उद्वेग उत्पन्न करने वाली मानी गयी है।उसके द्वारा अधिकतर व्यक्ति पापोन्मुख हो जाते हैं। यह बहुत ही भयंकर है जिसका त्याग मनुष्यों के लिए अत्यंत कठिन है जो मनुष्य के बूढ़े होने पर भी बूढी नहीं होती सदा जवान बनी रहती है जो मानव के लिए प्राणों का अंत कर देने वाले रोगों के सामान है जो इसे त्त्याग देता है उसी को सुख एवं शांति की प्राप्ति होती है।

गुरु, माता, पिता और बड़े भाई इनका इनसे सताए जाने पर भी कभी अपमान न करें क्योंकि गुरु ब्रह्मा की मूर्ति, माता पृथ्वी की मूर्ति, पिता प्रजापति की मूर्ति और बड़ा भाई स्वयं की ही दूसरी मूर्ति है।इनका अपमान उन-उन देवताओं का अपमान करना माना जाता है। बालको को जन्म देकर उनका पालन पोषण करने में माता पिता को जो दुःख सहना पड़ता है उसका बदला सैकड़ों वर्ष सेवा करके भी नहीं चुकाया जा सकता। जो व्यक्ति माता पिता और गुरु की सेवा में लगा रहता है वह सदैव सुखी रहता है।

जिसका ह्रदय प्रशन्नता से भरा हो उसी से समाज को प्रसन्नता प्राप्त होती है ।प्रसन्नता सदा उसी ह्रदय में निवास करती है जो प्रेम तथा क्षमा से भरपूर होता है।क्षमा मांगने से निर्दोषिता और क्षमा करने से मन में निर्वैरता उत्पन्न होती है तथा वैरभाव से रहित ह्रदय में ही प्रेम का अंकुर फूटता है।

सदाचार जीवन का अनमोल रत्न है। सत आचरण एक ऐसा भद्र एवं भव्य व्यवहार है जो आचरणकर्ता के मन को तृप्ति तो प्रदान करता ही है दूसरों को भी आनंद से परिपूरित करता है ।

प्रत्यक्ष प्रकृति है, माया है,संसार है।परोक्ष आत्मा है,चित्त है।प्रत्यक्ष चलायमान है,परिवर्तनशील है,नाशवान है।परोक्ष अर्थात आत्मा अचल है,शाश्वत है,अविनाशी है।प्रत्यक्ष दुःख का हेतु है और आत्मा आनंदरूप है।आनंद की कामना सभी को होती है।दुःख की कोई इच्छा नहीं करता। हमारे आत्म चिंतकों का प्रमुख लक्ष्य दुखों  से निवृत्ति और आनन्द की प्राप्ति का सदैव् रहा है।

सुसंस्कृत व्यक्ति कदापि पर-पीड़न नहीं करता जो ऐसा करते हैं और करने की चेष्टा करते हैं वे कितना भी पढ़े लिखे और विद्वान क्यों न हों उन्हें शिक्षित सभ्य और संस्कारित कहना कदापि उचित नहीं होगा। आज संसार में शिक्षित धनी और शक्तिशाली व्यक्तियों की कमी नहीं है फिर भी संस्कृति और मानव मूल्यों में लगातार गिरावट विद्वानों में घोर चिंता उत्पन्न कर रही है।

उम्मीद के सहारे इंसान पूरी जिंदगी काट डालता है लेकिन जैसे ही उम्मीद ख़त्म होती है एक पल की जिंदगी भी उसे पहाड़ जैसी लगने लगती है । उम्मीद हमें जिंदगी में हर कदम पर हौसला देती है ।

आज समाज की दशा उत्तरोत्तर विकृत होती जा रही है सामान्य जन अनंत दुखों,क्लेशों और विघ्नों का शिकार हो रहे हैं परस्पर विरोधी स्वार्थों के कारण प्रत्येक जनसामान्य तंग है।सदवृत्ति,सदवचन और सत्कर्म दुर्लभ हो गए हैं,सर्वत्र हिंसा,उच्छ्रंखलता और ऐक्य भ्रस्टाचार का बोलबाला है।प्रीति,करुणा,दया,सहानुभूति और न्यायप्रियता अंतिम सांसें ले रही है। इस महाविभिषिका से मुक्ति का सहज मार्ग मात्र धर्म ही है जिसे आज भौतिकता की चादर ओढ़ कर अनदेखा किया जा रहा है।

सत्संग से हृदय का अंधकार मिट जाता है,शरीर, प्राण और बुद्धि में शीतलता का संचार हो जाता है।सत्संग से विवेक और ज्ञान की प्राप्ति होती है और विपत्ति भी संपत्ति,मृत्यु भी उत्सव और जंगल भी मंगल हो जाता है। जिसे सत्संग की प्राप्ति हो गयी उसके समस्त सांसारिक दुःख समाप्त हो जाते है।

जो जिसके साथ रहता है,जिसकी सेवा करता है और जो जैसा होना चाहता है वह वैसा ही हो जाता है। कपड़े जिस रंग में रंगे जाते हैं वैसे ही हो जाते हैं।ऐसे ही जो पुरुष संत,असंत तपस्वी और चोर का जैसा संग करता है वह वैसा ही हो जाता है।

         लोभ दुःख के जन्म का प्रमुख कारण है यह मन को अस्थिर,असहज और असंयमित कर अनेकों मानसिक व्याधियां उत्पन्न कर प्राणी को मानसिक रोगी बना देता है।मन यदि लोभमुक्त हो जाता है तो सभी विकार और दुःख स्वतः समाप्त हो जाते हैं।

     अद्वितीय,परमशुद्ध,निर्विशेष आनंदनिधि आत्मा सर्वत्र स्थित है उससे पृथक कुछ भी नहीं है वही सर्वभिन्न,सर्वोत्तम तत्व है।इस प्रकार जो आत्मा को देखता है,श्रवण,मनन करता है एवं तत्पर होकर अनुभव करता है वह आत्मा में ही निरन्तर रमण करता है,क्रीड़ा करता है और उसी से संयुक्त रहकर आत्मानंद को प्राप्त करता है।जो आत्मज्ञान रहित हैं वे सदा पराधीन रहकर अनेक कष्टों को सहते हुए छुद्रगति को प्राप्त होते हैं।

     सत्य ईश्वर प्रदत्त वह दिव्य शक्ति है जिसे किसी भी प्रकार की कोई सांसारिक दुर्बलता पराजित करने का साहस नहीं कर सकती।सत्य ऐसा कवच है जिस पर अनाचार,पाप,झूठ,अनास्था,वैमनस्य,द्वेष और ईर्ष्या की तलवारें टकराकर चूर-चूर हो जाती है और सत्याचरण करने वाला व्यक्ति अकेला रहता हुआ भी अजेय हो जाता है।

             विचार शक्ति प्राणिमात्र के जीवन का दीपक है विचार शक्ति जीवों के कर्तव्य पथ को प्रदर्शित करती है।किसी प्रश्न के सत्य-असत्य,हित-अहित,सज्जन-दुर्जन,मित्र-शत्रु,गुण-दोष,लाभ-हानि,कर्तव्य-अकर्तव्य और योग्यता-अयोग्यता आदि का विचार तथा जीवन के ध्येय और उसके साधनों का निश्चय आदि स्वच्छ एवं प्रखर विचार शक्ति के द्वारा ही हल होते हैं।
   
        जो भोजन धर्म एवं न्याय से उपार्जित धन के द्वारा क्रय किये गए अन्न से शुद्ध स्थान में पवित्रता के साथ पकाया जाता है वही भोजन शुद्ध कहलाता है।इसके अलावा पापी,दुराचारी और कपटी व्यक्तियों के सानिध्य से भोजन अशुद्ध और दूषित हो जाता है।जब आहार शुद्ध होता है तब अंतःकरण शुद्ध होता है और अंतःकरण के शुद्ध होने पर स्मरण शक्ति और विचार शक्ति में स्थाई बृद्धि होती है तथा ह्रदय भी निर्मल एवं शुद्ध हो जाता है।
       संयम विभिन्न मानसिक एवं शारीरिक विकृतियों को सहजता पूर्वक समाप्त कर देता है जो लक्ष्य की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती हैं।मन और इन्द्रियों के संयम से सत्व की तथा सत्व से विचार की तथा विचार से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और आत्म ज्ञान से अज्ञान का आवरण निवृत्त हो जाता है और हम उचित अनुचित में भेद कर पाने में समर्थ हो जाते हैं।