हरित पल्लवो से ये धरती,चिरपर्णी यूँ ही बनी रहे,
कोटि-कोटि के बृक्षों से,सदा ये धरती हरी रहे।
उषा की अभिराम छटा फैले प्रतिदिन इस धरती पर,
उपवन की डाली-डाली यूँ ही कुसुमों से भरी रहे।
सदा लुभाए आकर्षण, बहुवर्णी साँझ की बेला का,
हर शाम हमारी धरती की नाना वर्णों से सजी रहे।
चलते रहें सदा यूँ ही मादक झोंके पुरवाई के,
सावन की श्याम घटावों की आकाश में चादर तनी रहे।
धनी रहे यूँ ही धरती,मनभावन ऋतुवों के क्रम से,
शरद,शिशिर, हेमंत, बसंत की क्रमता यूँ ही बनी रहे।
ब्रह्माण्ड में मेरी बसुन्धरा, कितनी प्यारी न्यारी है,
मनमोहक हरियाली इसकी, प्रतिपल नैनों में बसी रहे।
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